कुमार गंधर्व

Kumar Gandharva, कुमार गंधर्व, Late Pt. Kumar Gandharva, Master Kumar Gandharva, Pt. Kumar Gandharva, शिवपुत्र सिद्धरामैया कोमकाली

पंडित कुमार गंधर्व को जो एक बार सुन ले वह उन्हें कभी भूल नहीं सकता है | कुमार गंधर्व जी हिंदुस्तानी एवं कर्नाटक संगीत दोनों में महत्वपूर्ण नाम है| कुमार जी के गाए हुए कबीर के भजन एवं निर्गुण भजन हमें अध्यात्म की उन ऊंचाइयों पर पहुंचा देते हैं, जहां पहुंचने में साधक को वर्षों साधना करनी होती है कुमार गंधर्व जी के गाए हुए राग मालकोश और भीमपलासी को कोई भूल नहीं सकता है | कुमार गंधर्व जी हमेशा निर्गुण और निराकार की ओर ही अपने गायन के माध्यम से लोगों को दिशा देते रहे ध्यान और साधना की चाहत जो भी रखते हैं, उनके लिए प्रतिदिन कुमार गंधर्व को सुनना उनके सफर को आसान सु मधुर और नजदीक बना देते हैं कुमार गंधर्व जी के गाए हुए भजन उड़ जायेगा हंस अकेला एक बार सभी को सुनना चाहिए

''राग संगीत प्रवाही आकारतत्त्व है ,
जहाँ स्वर प्रवाह की धाराएँ कही सिकुड़ती है, कही फैलती है.
पर लौटकर पुनच्य उगम स्थानपर आकार बहेने लगती है, पर बहेकती नहीं.''

- कुमारजी


पंडित कुमार गंधर्व (अंग्रेज़ी: Kumar Gandharva, जन्म: 8 अप्रॅल, 1924; मृत्यु: 12 जनवरी, 1992) भारत के सुप्रसिद्ध शास्त्रीय गायक थे, जिनका वास्तविक नाम 'शिवपुत्र सिद्धरामैया कोमकाली' है।

कुमार गंधर्व का जन्म कर्नाटक के धारवाड़ में 8 अप्रॅल 1924 को हुआ। और पुणे में प्रोफेसर देवधर और अंजनी बाई मालपेकर से संगीत की शिक्षा पाई। शिवपुत्र जन्म जात गायक थे। दस वर्ष की आयु से ही संगीत समारोहों में गाने लगे थे और ऐसा चमत्कारी गायन करते थे कि उनका नाम कुमार गंधर्व पड़ गया।[1]

विवाह
कुमार गंधर्व जी ने विवाह अप्रॅल 1947 में भानुमती जो स्वयं एक अच्छी गायिका थीं, से किया और देवास, मध्य प्रदेश आ गये। यहाँ आने के बाद वे इन्दौर गये और इन्दौर वे गाना गाने नहीं मालवा की समशीतोष्ण जलवायु में स्वास्थ लाभ करने आए थे। उन्हें टी .बी थी जिसका उन दिनों कोई पक्का इलाज़ नहीं था। लेकिन जिस दिन वे इंदौर उतरे वह हाल ही आज़ाद हुए भारत का सबसे काला दिन था। 30 जनवरी, 1948 में, दिल्ली में नाथूराम गोडसे ने महात्मा गाँधी की हत्या कर दी थी। मालवा में स्वास्थ्य लाभ के जीवन की शुरुआत शुभ मुहुर्त में नहीं हुई थी।

पत्नी भानुमती
कुमार जी की पत्नी भानुमती ख़ुद एक गायिका थीं। लेकिन देवास के एक स्कूल में पढ़ा कर गायक पति का इलाज और घर चलाती थीं। जितनी सुन्दर थीं उतनी ही कुशल गृहणी नर्स थीं। कुमार जी स्वस्थ होकर फिर से वह नई तरह का गायन कर सके इसका श्रेय भानुताई को ही दिया जाना चाहिए।

नये कुमार गंधर्व
जिस घर में कुमार जी स्वास्थ लाभ कर रहे थे, तब वह देवास के लगभग बाहर था, और वहां हाट लगा करता था। कुमार जी ने वहीं बिस्तर पर पड़े पड़े मालवी के खांटी स्वर महिलाओं से सुने। वहीं पग- पग पर गीतों से चलने वाले मालवी लोक जीवन से उनका साक्षात्कार हुआ। संगीत वे सीखे हुए थे और शास्त्रीय गायन में उनका नाम भी था। लेकिन स्वस्थ होते हुए और नया जीवन पाते हुए उनमें एक गायक का भी जन्म हुआ। सन 1952 के बाद जब वे ठीक होकर गाने लगे तो पुराने कुमार गन्धर्व नहीं रह गये थे।

मालवा की मिट्टी में संगीत की सुगंध
एक दिन मामा मजूमदार के घर छोटी सी महफ़िल में गाते हुए उन्होंने अचानक कहा "अब मुझे गाना आ गया"। वह हमारे मालवा के अन्यतम गायक कुमार गंधर्व का जन्म था। उन्हें बचपन से सुनने वाले वामन हरी देशपांडे ने उन दिनों के बारे में लिखा है-

"न जाने देवास की ज़मीन में कैसा जादू है। मुझे वहाँ की मिट्टी में संगीत की सुगंध प्रतीत हुई।"
मालवा के लोक जीवन से कुमार जी के साक्षात्कार पर देशपांडे ने लिखा, "बिस्तर पर पड़े-पड़े वे ध्यान से आसपास से उठने वाले ग्रामवासियों के लोकगीतों के स्वरों को सुना करते थे। वे उन लोकगीतों और लोक धुनों की और आकर्षित होते चले गये। इसमें से एक नये विश्व का दर्शन उन्हें प्राप्त हुआ।"

कालिदास के बाद कुमार गन्धर्व मालवा के सबसे दिव्य सांस्कृतिक विभूति हैं।
भानुमती का निधन
सन 1961 में दूसरे पुत्र को जन्म देते हुए भानुमती का निधन हो गया। कुमार जी ने अपने नये घर का नाम भानुकुल रखा। फिर वसुंधरा जी से दूसरा विवाह किया। भानुमती से हुआ मुकुल गंधर्व, और वसुंधरा की हुई कलापिनी, दोनों ही गायक गायिका हैं।

निधन
68 वर्ष की उम्र में 12 जनवरी, 1992 में देवास में उनका निधन हो गया। लोक संगीत को शास्त्रीय से भी ऊपर ले जाने वाले कुमार जी ने कबीर को जैसा गया वैसा कोई नहीं गा सकेगा।


कुमार गंधर्व के नाम से प्रसिद्ध शिवपुत्र सिद्धराम कोमकाली को सन १९७७ में भारत सरकार द्वारा कला के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। वह मध्य प्रदेश से हैं।


उनके बारे में विशेषज्ञता के साथ लिखने-बोलने का दावा तो आज के दौर में शायद चंद लोग भी न कर पाएं. लेकिन कुछेक छोटे-छोटे किस्से ज़रूर हैं जो उनके बड़े क़द और उनकी विधा में उनके ‘सर्वशीर्ष’ होने की झलक देते हैं. ये बताते हैं कि हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के वे ‘गंधर्व’ सिर्फ़ पदवी से ‘कुमार’ थे. बाकी कहीं किसी मामले में ‘सवाई’ (इसका आशय पदवी के बजाय क़द के परिमाण से लगाना चाहिए क्योंकि सवाई गंधर्व की पदवी एक और महान गायक को मिली हुई है.) से कम न थे. निश्चित रूप से यहां शिवपुत्र सिद्धारमैया कोमकाली यानी कुमार गंधर्व की ही बात हो रही है. आज फिर उनकी स्मृतियों को तरोताज़ा करने का दिन है.

कुमार गंधर्व से जुड़े कई किस्से क़िताबों के सफ़ों (पन्नों) में दर्ज़ हो चुके हैं. ऐसी ही एक प्रामाणिक क़िताब है ख़ुद कुमार जी की लिखी ‘अनूपरागविलास’. यह क़िताब दो खंड में है. और इसके पहले खंड में अपने जमाने के ख्यात संगीत समालोचक (क्रिटिक), संगीतशास्त्री (म्यूजिकोलॉजिस्ट) और लेखक वामनराव देशपांडे ने 27 पन्नों की भूमिका लिखी है. लेकिन यक़ीन कीजिए जैसे-जैसे आप इस बड़ी सी भूमिका को पढ़ते हुए बढ़ते हैं कुमार जी का क़द और बड़ा लगता जाता है.

वामनराव इस क़िताब में कुमार जी के लालित्य, साहित्य और प्रयोधर्मिता की बात करते-करते जब पहली बार उनसे जुड़ा कोई किस्सा याद करते हैं तो उनकी लिखी भूमिका के 10 पन्ने गुजर चुके होते हैं. यहां फिर पन्नों की संख्या का उल्लेख करने का मतलब और मक़सद सिर्फ़ यह याद रखना और कराना है कि जिस शख़्सियत की बात हो रही है उनके बारे में लिखते-गढ़ते वक़्त अल्फ़ाज़ और सफ़े सब कम पड़ जाया करते हैं. बहरहाल अब यहां वामनराव पहली बार कुमार जी के साथ हुए अपने साक्षात्कार को याद कर रहे हैं. वे लिखते हैं, ‘यह 1935 की बात है. उस साल बंबई (मुंबई का पुराना नाम) जिन्ना हॉल में आयोजित संगीत परिषद के सूत्रधार थे मेरे मित्र बीआर देवधर, मोतीराम पै और मैं ख़ुद... परिषद में अनेक जाने-माने गायक-गायिकाओं की महफ़िलें हुईं. कलाकाराें ने अपने जौहर की हद कर दी.... सारा हॉल खचाखच भरा हुआ था. कहीं खड़े रखने की जगह नहीं थी.... रसिकों की भारी भीड़. गुणों को हाथों-हाथ झेल लेने वालों की सभा थी वह.... ऐसी स्थिति में उम्र से बारह किंतु दीखने में नौ वर्ष का बाल कुमार स्टेज पर आ बैठा और उसने सभा पर अपनी आवाज़ का सम्माेहन अस्त्र चला दिया. एक क्षण में वह सारी सभा जैसे उसकी पकड़ में आ गई. हर जगह प्रत्येक हरक़त पर दाद दी जा रही थी. सभा का उत्साह जैसे उबला जा रहा था.... गाना थोड़ी ही देर चला लेकिन हर चेहरे पर विस्मय (बहुत देर तक) अंकित था. हर उपस्थित रसिक एवं कलाकार में इस लड़के की सराहना करने की लहरें उठ रही थीं. लिहाज़ा वहां पुरस्कारों की झड़ी लग गई.... देने वालों में खां साहेबान थे, पंडित जी थे, गायिकाएं थीं. हर एक को यह फ़िक़्र भी थी कि इस लड़के के असामान्य गुणों की देखभाल और विकास कौन करेगा?’

वामनराव के साथ कुमार जी का यह पहला परिचय था. इसके बाद वे थोड़ा आगे बढ़ते हैं और कुमार जी के जीवन का एक पिछला वाक़या सुनाते हैं, ‘कुमार जी के पिता सिद्रामप्पा (सिद्धारमैया काेमकाली) अब्दुल क़रीम खां को बहुत चाहते थे. उसी प्रकार वे सुप्रसिद्ध पंचाक्षरी बुआ के मित्र थे और ख़ुद भी गाते थे तथा किसी को सिखाते भी थे. मतलब कुमार जी के घर में उनके जन्म से ही संगीत का वातावरण था और इसीलिए तभी से उन पर संगीत के संस्कार होने लगे. अनजाने ही सुनने की प्रक्रिया निरंतर जारी थी. लेकिन उन्होंने कभी मुंह नहीं खोला. घरभर में किसी को ज़रा भी संदेह तक नहीं था कि इस लड़के के मन में कुछ संस्कार हो रहे हैं या जम रहे हैं. और ऐसी स्थिति में एक दिन उम्र के छठवें वर्ष में जैसे गीली जमीन को फाड़कर अंकुर बाहर आ जाए, कुमार जी एकदम गाने लगे. उस गायन से सबको इतना अचरज हुआ कि कहा नहीं जा सकता. क्योंकि कुमार जी वझेबुआ (उस जमाने के ख्यात शास्त्रीय गायक) का एक ग्रामोफोन रिकॉर्ड सुनकर उसकी हूबहू नक़ल उतार रहे थे.... इस तरह कुमार जी गाने लगे और धीरे-धीरे उनके पिता ने गाना छोड़ दिया.’

वामनराव बताते हैं कि कैसे कुमार जी शुरू-शुरू में तमाम बड़े गायकों की कुछ इस तरह नक़ल उतारा करते थे कि लगता था कि वह असल ही है. इसकी विशेषता यह होती थी कि वे जिस गायक की नक़ल उतारते उसकी गायकी ही वे गाया करते थे. उस गायक के सुर लगाने का तरीका, आलाप का ढंग, तान-पलटों की जाति, लय के न्याय, बोलतानों का तरीका सब उसी का होता था. वह भी कुछ इस अंदाज़ में कि मूल गायक भी उनकी आवाज़ में अपनी गायकी सुनकर भौंचक रह जाते थे. ऐसे भी कुछ वाक़यों का ज़िक्र वे करते हैं, ‘अब्दुल करीम खां तथा रामभाऊ सवाई गंधर्व की नक़ल एक के बाद एक उतारकर वे (कुमार जी) इन गुरु-शिष्य (सवाई गंधर्व रामभाऊ कुंडगोलकर, अब्दुल करीम खां के शिष्य थे) का भेद स्पष्ट कर दिखाते थे. एक बार देवधर जी ने केसरबाई (उस दौर की प्रसिद्ध शास्त्रीय गायिका) के समक्ष कुमार जी की तारीफ़ की. उस समय केसरबाई को लगा कि वे कुछ यूं ही कह रहे हैं. इससे कुमार जी को गुस्सा आ गया और उन्होंने केसरबाई की ‘सुख कर आये’ (बंदिश) की नक़ल उतारकर उन्हें विस्मित कर दिया. इसी तरह इलाहाबाद में फ़ैयाज़ खां साहब स्वयं की नक़ल कुमार जी द्वारा सुनकर अचंभित हो गए थे. एक बार सावंतवाडीकर महाराज (महाराष्ट्र की सावंतवाडी रियासत के राजा) ने कुमार जी की क्षमता के प्रति अविश्वास प्रकट किया और कहा- मैं एक रिकॉर्ड सुनवाता हूं वैसा गाकर दिखाओ. उन्होंने जो रिकॉर्ड चुनी वह थी रहिमत खां साहब की. उसे सुनते ही कुमार जी ने तत्काल वैसा ही गा सुनाया. और जिन्ना हॉल में (जहां वामनराव ने पहली बार कुमार जी को देखा) वे अब्दुल करीम खां की नक़ल पेश कर रहे थे.’

वामनराव यह ज़िक्र करना भी नहीं भूलते कि कैसे छोटे से कुमार का ‘गायकी के गंधर्व’ बनने का सफर शुरू हुआ. यह भी उसी 1935-36 के आसपास की बात रही होगी जब कुमार जी बीआर देवधर के पास संगीत की विधिवत शिक्षा लेने के लिए आए. बाक़लम वामनराव ‘देवधर जी का घर या उनकी (संगीत) शाला गायक-वादकों का एक मुकाम ही था. एक भी गायक नहीं था जाे वहां आया-जाया न करता था. और न एक भी गायक-गायकी अथवा संगीत का तत्व ऐसा था जिसकी चर्चा एवं विश्लेषण वहां न हुआ हो....विभिन्न घराने, उनके ख्यातनाम गायक, उनकी अलग-अलग गायकी, देवधर जी की सूक्ष्म दृष्टि से बची नहीं थी. उनके सब गुणों की तथा सब दोषाें की चर्चा वहां खूब होती थी....इस संयोग का कुमार जी के मन पर उनकी किशोर तथा तरुण अवस्था में कितना गहरा असर हुआ होगा इसकी मात्र कल्पना ही की जा सकती है. फ़लां गायक में फ़लां दोष है यह जान पड़ने पर कुमार जी मन ही मन निश्चय करते कि मेरे गायन में यह दोष नहीं आ पाएगा. फलां-फलां बात बहुत अच्छी है किंतु उतनी ही कठिन भी यह तय पाए जाने पर कुमार जी मन ही मन प्रतिज्ञा करते कि मैं उसे कर दिखाऊंगा.... देवधर जी हर किसी के गायन में कुछ न कुछ ख़ामी बतलाते. परिणामस्वरूप कुमार जी ने प्रतिज्ञा की कि मैं इनमें से किसी की भी तरह नहीं गाऊंगा और न किसी की नक़ल करूंगा.’

और फिर इसके बाद लेखक जिसे अपनी दृष्टि से किसी भी महान शख़्सियत के सफ़र की एक अपरिहार्य मंजिल मानते हैं उस वाक़ये का जि़क्र. कुमार के ‘गलित हो जाने’ और ‘गंधर्व के उद्भव’ का क्षण. वामनराव लिखते हैं, ‘देवधर की तालीम और संग-साथ के कारण सब बदलता चला गया. ज्यों-ज्यों समझ बढ़ने लगी त्यों-त्यों संदेह सताने लगे. अब गाते समय (कुमार जी को) कुछ संकोच और दबाव महसूस होने लगा. स्वर ठीक लग रहा है या नहीं. राग ठीक से पेश कर रहा हूं या नहीं. आदि....संदेह और असमंजस की इस अवस्था में कई बार मन की व्यथा तीव्र हो जाती. एक बार तो यह व्यथा इतनी नुकीली हो गई कि निराशा, विफ़लता, निरुत्साह और स्वयं को पराभूत अनुभव करने पर रास्ता चलते-चलते ही (पावेल कंपनी के पास) कुमार जी रो पड़े. यह 1941 की एक शाम थी.... इस अवस्था में कुमार जी ने 1941 से 1947 तक कोई छह साल गुजारे. हालांकि इस अरसे में भी उनके संगीत कार्यक्रमों और महफ़िलों का सिलसिला बराबर जारी था.... कीर्ति बढ़ती जा रही थी. पैसा भी आ ही रहा था.... पर अंतर की चिंता भी जला ही रही थी. किसी अन्य की तरह न गाने का निश्चय और इधर नया कुछ बनाता नहीं. इस मनोदशा में घूमते-फिरते वे देवास (मध्यप्रदेश का शहर. कुमार जी फिर हमेशा यहीं रहे) जा पहुंचे. अपने गायक मित्र कृष्णराव मजूमदार के यहां वे ठहरे....लगातार दस दिनों तक सुबह-शाम दोपहर-रात निरंतर गाना चलता रहा. और वहां एक दिन भीमपलासी (राग) कुछ ऐसा जमा कि कुमार जी को स्वयं एकदम साक्षात्कार हुआ- ‘मुुझे गाना आ गया.’ छह वर्षों की निराशा और अंधकार के पश्चात़ वह दिव्य प्रकाश...’

Reff: https://satyagrah.scroll.in/article/112746/kumar-gandharva-hindustani-classical-singer-profile


मध्य प्रदेश के देवास शहर में उस रोज जो ‘कुमार गलित हुए’ और उसके बाद जिन ‘गंधर्व का उद्भव’ हुआ उनके अंतर की व्यथा शांत हो चुकी थी. तमाम दबाव और असमंजस जाते रहे थे. अब यह कोई अलग ही शख़्स थे जो सोच से भी आगे का संगीत देख सकते थे. उसे सुन सकते थे, महसूस कर सकते थे और उस अदृश्य को अद्भुत अंदाज़ में सामने ला सकते थे.

विविध भारती के ‘विविधा’ कार्यक्रम में अपने साक्षात्कार के दौरान ऐसा ही वाक़या कुमार जी बेटी कलापिनी कोमकाली कुछ इस तरह याद करती हैं, ‘उन दिनों मैं छोटी ही थी लेकिन घर में चूंकि संगीत का ही माहौल था इसलिए इस विधा को ठीक-ठाक तरीके से समझने लगी थी. उसी समय की बात है. एक दिन मैंने कुमार जी के मुंह से कामोद (राग) की एक बंदिश सुनी. वह बंदिश पंडित विष्णुनारायण भातखंडे की पुस्तक में भी लिखी हुई है. वे उस बंदिश को बिल्कुल अलग और बड़े ख़ूबसूरत अंदाज़ में गा रहे थे. जब उनका गाना हो गया तो मैं उनके पास गई और पूछा- बाबा ये बंदिश जो आपने गाई यह तो लिखी वाली से बिल्कुल अलग है. तो उन्होंने कहा- नहीं. मैंने वही बंदिश गाई है जो भातखंडे की पुस्तक में लिखी हुई है. पर मैं क्या करूं मुझे बिटवीन द लाइंस (यानी लिखी हुई लानों के बीच का अलिखित भाव) भी दिखता है.’

एक ऐसा ही प्रसंग कुमार जी के बेटे मुकुल शिवपुत्र भी याद करते हैं. जाने-माने ध्रुपद गायक उमाकांत-रमाकांत गुंदेचा (गुंदेचा बंधु) की किताब ‘सुनता है गुरु ज्ञानी’ में प्रकाशित साक्षात्कार में मुकुल बताते हैं, ‘संगीत सिखाते या गढ़ते (कंपोज करना) वक़्त कुमार जी बिल्कुल अलग ही दुनिया में होते थे. इस दुनिया में नहीं रहते थे. कई बार तो ऐसा होता था कि जैसे उन्होंने गुर्जरी तोड़ी (राग) हमें पलटा (अलंकार) दे दिया- सा रे ग रे सा, सा रे ग म ध, रे ग रे सा- और कहा रियाज़ करो. इसके बाद हम इस कमरे में रियाज़ कर रहे हैं उधर वे दूसरे कमरे में जाकर तोड़ी (राग) या शंकरा (राग) में कुछ कंपोज़ कर रहे हैं. इस दौरान उन्हें हमारी आवाज़ बराबर आती रहती लेकिन, वे अपना कंपोज़ीशन भी किसी दूसरे राग में लगातार बनाते रहते. यह एक अद्दभुत बात थी उनमें.’

कुमार जी की शिष्या रहीं मीरा राव सत्याग्रह से बातचीत में बताती हैं, ‘कुमार जी ने संगीत को और संगीत ने कुमार जी को पूरी तरह आत्मसात कर रखा था. जैसे भोजन-पानी शरीर में पहुंंचकर अपना अस्तित्व पूरी तरह उसी में समाहित कर देता है न? बिल्कुल वैसे ही. वे हम लोगों को ऐसे ही दृष्टांत देकर समझाया करते थे. कहते थे- ‘जैसे खाने में चखना, वैसे सुनना. संगीत तो चखने की चीज़ है. जीभ हो तो आप चखो, कान हों तो सुनो. अच्छा लगे तो और सुनो. अच्छा न लगे तो बाहर आ जाओ.’ ख़ुद कुमार जी के लिए भी संगीत ऐसा ही था. खाने-पीने जैसा जीवन का अभिन्न और अनिवार्य हिस्सा. वे संगीत के स्वादी थे. आला दर्ज़े के स्वादी. वे संगीत का ऐसा सर्वोच्च स्वाद (एक्सट्रेक्ट) हासिल करते थे जो और कोई शायद सोच भी न पाए.’

वर्तमान दौर में कुमार जी के समर्पित अनुयायियों में ख़ुद को शुमार कर चुके देश के जाने-माने बांसुरी वादकों में से एक अभय फगरे ने पढ़-सुनकर उन्हें समझने की कोशिश की है. और उनके इस पढ़े-सुने का निष्कर्ष काफ़ी-कुछ वैसा है जैसा मुकुल शिवपुत्र का. ‘सुनता है गुरु ज्ञानी’ में मुकुल शिवपुत्र कहते हैं, ‘दूसरा कुमार पैदा हो नहीं सकता. कोई भी व्यक्ति उनसे कमतर ही होगा. बेहतर हो ही नहीं सकता. मैंने कुमार जी का ऐसा गाना सुना है कि उनसे अच्छा कोई गा नहीं सकता. मैंने उनसे बागेश्री (राग) ऐसा सुना है- पूरा निचोड़ के कि मैं अब किसका बागेश्री सुनूं. मुझे किसी और का बागेश्री सुनने की ज़रूरत ही नहीं महसूस नहीं होती.’

उधर, सत्याग्रह से बातचीत में अभय फगरे बताते हैं, ‘कुमार जी के लिए संगीत और संगीत के लिए कुमार जी किसी दायरे में नहीं बंधे. संगीत ने उन्हें संपूर्णता में देखा और उन्होंने संगीत को उसकी संपूर्णता में आत्मसात किया. इसीलिए जब वे यह कहते हैं कि यमन एक विशाल राग है तो उसकी विशालता को उसके भिन्न-भिन्न रूपों के साथ अपने संगीत के ज़रिए दिखाते भी हैं. उनकी सिद्धहस्तता इस स्तर की है कि वे बंदिश के भाव के हिसाब से ख़ुद तय करते हैं कि कल्याण (राग) में शुद्ध मध्यम (म) या बागेश्री में पंचम (प) लगाना या है नहीं. लगाना है तो कब, कहां और कितना.’

और कुमार गंधर्व की यह जो विलक्षता थी उसने ‘शून्य से शत-सहस्र’ का सफ़र तय किया था. उनकी ही किताब ‘अनूपरागविलास’ के पहले खंड में लिखी अपनी प्रस्तावना में अपने जमाने के ख़्यात संगीत समालोचक (क्रिटिक), संगीतशास्त्री (म्यूजिकोलॉजिस्ट) और लेखक वामनराव देशपांडे इसका संकेत देते हैं. वे लिखते हैं, ‘महफिल अभी जम ही रही थी कि तानपूरे का तार अचानक टूट गया. कुमार जी पर तपेदिक (टीबी) ने आक्रमण कर दिया... डॉक्टर का आदेश था कि पांच साल तक तानपूरा हाथ में लेकर गाएं नहीं. कुमार जी ने इस आदेश का अक्षरश: पालन किया... (अब तक कुमार मध्य प्रदेश के देवास में स्थायी रूप से आकर बस चुके थे) लेकिन इस बीमारी का भी उन्होंने इस्तेमाल कर लिया. उनका मन अब अधिक चिंतनशील हो गया था. इसलिए वे इस दौर में संगीत में गहरे पैठ कर उसकी थाह ले सके...चौबीसों घंटे बिस्तर पर पड़े-पड़े शून्य में गुजरते थे. सो उनका ध्यान आसपास के उठने वाले स्वरों की ओर खिंचता गया. ग्रामवासियों के लोकगीतों की ओर. लोकधुनों की ओर. और वे इनकी तरफ़ अधिकाधिक आकर्षित होते गए. इसी में से एक नए विश्व का उन्हें दर्शन हुआ.’

कुमार जी का यह नया विश्व कैसा था, कितना वृहद् और गहरा था, किस हद तक अपने आसपास के वातावरण और उसमें तैरते संगीत के प्रति संवेदनशील था, इसे समझने के लिए कोई प्रसंग पढ़ना शायद उचित न हो. इसके बज़ाय यह सवा सात मिनट की रिकॉर्डिंग सुनें तो शायद बेहतर रहेगा. शायद आप भी इन चंद शब्दों और सुरों में छिपी पीड़ा को, उस आर्तनाद को महसूस कर पाएं. अलबत्ता यह बंदिश पूरी नहीं है पर जितनी भी है कुमार जी को महसूस करने के लिए संपूर्ण है...

राग मधसुरजा. कंपोज़िशन ज़ाहिर तौर पर कुमार जी का और काव्य रचना भी उनकी. लेकिन मालवी भाषा में लिखे कुमार जी के इन शब्दों के पीछे छिपी पीड़ा एक बकरे की है जिसे बलि चढ़ाने के लिए देवी मंदिर ले जाया जा रहा है. (यहां बताते चलें कि देवास में कुमार जी का निवास देवी मंदिर के रास्ते में है) और वह आर्त स्वर में मां भगवती से प्रार्थना कर रहा है...

‘बचा ले मोरी मां माता री,
घर में ललुवा अकेलो बिन मो है ।।
अरज यही तोरे पास मेरो थो है,
घर में ललुवा अकेलो बिन मो है।।

ये हैं कुमार गंधर्व. जो बलि के बकरे की मिमियाहट में छिपे आर्त संगीत को भी सुन सकते हैं. उसे शब्द दे सकते हैं. उसे महसूस कर सकते हैं और करा भी सकते हैं. और यही वह विशिष्टता है कि जिसकी वज़ह से आज हम भी कुमार गंधर्व और उनके संगीत को अपने आसपास सजीव-सशरीर महसूस कर पा रहे हैं.

Reff: https://satyagrah.scroll.in/article/115226/kumar-gandharva-work-profile


जन्मदिन विशेषः कुमार गंधर्व डांटते न तो तबलावादक होते पंडित जसराज

पंडित जसराज देश ही नहीं दुनिया के सर्वाधिक प्रतिष्ठित शास्त्रीय गायकों में से एक हैं. उनका जन्म 28 जनवरी, 1930 को हरियाणा के फतेहाबाद जिले के पीली मंदोरी में हुआ था.

पंडित जसराज का आज जन्मदिन है. वह देश ही नहीं दुनिया के सर्वाधिक प्रतिष्ठित शास्त्रीय गायकों में से एक हैं. उनका जन्म 28 जनवरी, 1930 को हरियाणा के फतेहाबाद जिले के पीली मंदोरी में हुआ था. वह एक संगीतज्ञ परिवार में पैदा हुए थे. जब छोटे थे तभी अपने परिवार के साथ हैदराबाद चले गए. कहते हैं जब जसराज काफी छोटे थे तभी उनके पिता पंडित मोतीराम का निधन हो गया. दुखद तो यह कि पंडित मोतीराम का देहांत उसी दिन हुआ जिस दिन उन्हें हैदराबाद और बेरार के आखिरी निज़ाम उस्मान अलि खाँ बहादुर के दरबार में राज संगीतज्ञ घोषित किया जाना था.

इसके चलते पंडित जसराज का लालन-पालन उनके अग्रज संगीत महामहोपाध्याय पं. मणिराम के द्वारा हुआ. उन्हीं की छत्रछाया में पं. जसराज ने संगीत की शिक्षा ली. बालक जसराज तबला वादक के रूप में बड़े भाई के साथ संगीत समारोहों व कार्यक्रमों में जाने लगे. पर उस समय दौर में तबला वादकों को सारंगी वादकों से छोटा माना जाता था. कहते हैं  इस तरह के दोयम दर्जे के व्यवहार से नाखुश होकर पंडित जसराज ने चौदह साल की उम्र में तबला बजाना बंद कर दिया, और एक प्रतिज्ञा ली कि जब तक वे शास्त्रीय गायन में विशारद हासिल नहीं कर लेते, अपने बाल नहीं कटवाएंगे.

खुद पंडित जसराज के शब्दों में हुआ यह था कि '1945 में लाहौर में कुमार गंधर्व के साथ एक कार्यक्रम में मैं तबले पर संगत कर रहा था. कार्यक्रम के अगले दिन कुमार गंधर्व ने उन्हें बुरी तरह से डांट दिया कि, 'जसराज तुम मरा हुआ चमड़ा पीटते हो, तुम्हे रागदारी के बारे में कुछ नहीं पता.' उस दिन के बाद से मैंने तबले को कभी हाथ नहीं लगाया और तबला वादक की जगह गायकी ने ले ली. इंदौर का होलकर घराना काफी प्रसिद्ध रहा है. उस्ताद अमीर खां, पंडित कुमार गंधर्व, लता मंगेशकर, किशोर कुमार सहित इतनी हस्तियां यहां से हैं. कई बार लगता है कि कहां मैं हरियाणा में पैदा हो गया. ईश्वर इंदौर में ही जन्म दे देता तो इन सभी की सोहबत मिलती..

इसके बाद तो इतिहास है. पंडित जसराज ने मेवाती घराने के दिग्गज महाराणा जयवंत सिंह वाघेला तथा आगरा के स्वामी वल्लभदास से संगीत विशारद प्राप्त किया. पं. जसराज की आवाज़ का फैलाव साढ़े तीन सप्तकों तक है. उनके गायन में पाया जाने वाला शुद्ध उच्चारण और स्पष्टता मेवाती घराने की 'ख़याल' शैली की विशिष्टता है. उन्होंने बाबा श्याम मनोहर गोस्वामी महाराज के सान्निध्य में 'हवेली संगीत' पर व्यापक अनुसंधान कर कई नवीन बंदिशों की रचना भी की. भारतीय शास्त्रीय संगीत में यह उनका सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान है. उन्होंने 'मूर्छना' की प्राचीन शैली पर आधारित एक अद्वितीय एवं अनोखी जुगलबन्दी ईजाद की. इस संगीत शैली में एक महिला और एक पुरुष गायक अपने-अपने सुर में भिन्न रागों को एक साथ गाते हैं. पंडित जसराज के सम्मान में इस जुगलबन्दी का नाम 'जसरंगी' रखा गया.

उनके गाए गीतों के अलबम पूरी दुनिया के संगीतप्रेमियों के बीच बेहद लोकप्रिय हैं. भारत सरकार ने भी पंडित जसराज की संगीत सेवाओं के लिए उन्हें पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्म श्री से सम्मानित किया है. इसके अलावा उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, मास्टर दीनानाथ मंगेशकर अवार्ड, लता मंगेशकर पुरस्कार, महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार भी मिल चुका है. उन्होंने कुछ फिल्मों के लिए भी अपनी संगीत सेवाएं दीं, पर शास्त्रीय संगीत में उन्होंने जो मुकाम छुआ है, उसको देखते हुए उसकी चर्चा गौण है. साहित्य आजतक और उसके पाठकों की ओर से पंडित जसराज को जन्मदिन की ढेरों शुभकामनाएं.


पिछले बुधवार शास्त्रीय संगीत के विख्यात गायक स्वर्गीय कुमार गंधर्व की पत्नी और जानी मानी गायिका वसुन्धरा कोमकली का देहांत हो गया। संगीत नाटक अकादमी द्वारा पुरस्कृत वसुन्धरा जी को अक्सर आम संगीतप्रेमी कुमार गंधर्व के साथ गाए उनके निर्गुण भजनों के लिए याद करते हैं। पर इससे पहले मैं आपको वो भजन सुनाऊँ,कुछ बातें शास्त्रीय संगीत की इस अमर जोड़ी के बारे में। 

वसुन्धरा जी मात्र बारह साल की थीं जब उनकी मुलाकात कुमार गंधर्व से कोलकाता में हुई। कुमार गंधर्व को उनका गायन पसंद आया और उन्होंने वसुन्धरा को मुंबई आकर सीखने का आमंत्रण दे दिया। पर द्वितीय विश्व युद्ध के शुरु हो जाने की वज़ह से वसुन्धरा 1946 में ही मुंबई जा सकीं। तब तक वो आकाशवाणी की नियमित कलाकार बन चुकी थीं। उधर गंधर्व साहब भी  इतने व्यस्त हो गए थे कि वसुंधरा को उन्होंने अपने बजाए प्रोफेसर देवधर से सीखने की सलाह दे डाली। वसुन्धरा दुखी तो हुईं पर उन्होंने देवधर जी से सीखना शुरु कर दिया। बाद में वो कुमार गंधर्व की भी शिष्या बनी। वसुंधरा जी से अक्सर गायिकी के प्रति कुमार गंधर्व की  अवधारणा के बारे में पूछा जाता रहा है। वो जवाब में कहा करती थीं..
"संगीत सिर्फ एक शिल्प नहीं बल्कि कला है। सिर्फ लगातार रियाज़ ही मत किया करो पर उसके बीच में अपने संगीत के बारे में भी सोचो।"
शायद इसी सोच ने ख्याल गायिकी में उन्हें देश के शीर्ष गायकों की कोटि में ला कर खड़ा कर दिया। 

कबीर के जिस निर्गुण भजन को आज आपसे बाँट रहा हूँ वो सबसे पहले छः साल पूर्व मैंने अपने मित्र के ज़रिए ब्लॉग पर ही सुना था। पहली बार इस भजन को सुनकर मन पूरी तरह कुमार गंधर्व और वसुन्धरा कोमकली की मधुर तान से वशीभूत हो गया था। कैसा तो तिलिस्म था इस युगल स्वर में कि शब्दों की तह में पहुँचे बिना ही मन भक्तिमय हो उठा था। पर बार बार सुनते हुए कबीर के गूढ़ से लगते बोलों को समझने की इच्छा भी बढ़ती गई। कबीर के चिंतन को समझने के लिए कई आलेख पढ़े और फिर इस भजन को दोबारा सुना तो लगा कि  संगीत की स्वरलहरी में डूबते हुए जो वैचारिक धरातल पहले अदृश्य सा हो गया था वो दिखने लगा है। तो आइए कोशिश करते हैं इस निर्गुण भजन में कबीर की सोच को टटोलने की
 

निर्भय निर्गुण गुण रे गाऊँगा 
मूल-कमल दृढ़-आसन बाँधू जी 
उल्टी पवन चढ़ाऊँगा, चढ़ाऊँगा.. 
निर्भय निर्गुण ....

मन-ममता को थिर कर लाऊँ जी 
पांचों तत्त्व मिलाऊँगा जी, मिलाऊँगा
निर्भय निर्गुण ....

मनुष्य की आध्यात्मिक यात्रा का उद्देश्य दरअसल अपने अस्तित्व के कारण को तलाशना रहा है। इस तलाश का स्वाभाविक अंत तभी हो सकता है जब मनुष्य निडर हो अपने कर्मों और उसके फल के प्रति। यानि दूसरे शब्दों में कहें तो  निडरता पहली सीढ़ी है उस सत्य तक पहुँचने की। जैसा कि विदित है कि कबीर धर्म के बाहरी आडंबरों के घोर विरोधी थे और निर्गुण ईश्वर के उपासक।  कबीर इसी निडरता के साथ उस निराकार ईश्वर की आराधना कर रहे हैं। 

कबीर फिर कहते हैं कि इस यात्रा की शुरुआत से पहले अपनी उर्जा को एक सशक्त आधार देना होगा फैले कमल रूपी आसन में। जिस तरह कमल कीचड़ के ऊपर फलता फूलता है उसी तरह हमें अपने अंदर की ॠणात्मकता और भय को त्याग कर उसे सृजनशीलता में बदलना होगा। मूलाधार से अपनी उर्जा को ऊपर की ओर ले जाने का यही मार्ग दिखाया है कबीर ने। 

पर ये इतना आसान नहीं है। इस राह में बाधाएँ भी हैं। आख़िर इस उर्जा को बढ़ने से रोकता कौन है? इन्हें रोकती हैं हमारी इच्छाएँ और लगाव। एक बार इन बंधनों से मुक्त होकर अगर अपने को प्रकृति के पंचतत्त्वों में विलीन कर लूँ तो मुझे अपने होने का मूल कारण सहज ही दिख जाएगा।

इंगला-पिंगला सुखमन नाड़ी जी 
त्रिवेणी पर हाँ नहाऊँगा,  नहाऊँगा
निर्भय निर्गुण ....

पाँच-पचीसों पकड़ मँगाऊँ जी 
एक ही डोर लगाऊँगा, लगाऊँगा 
निर्भय निर्गुण ....

इंगला नाड़ी वह नाड़ी है जो नाक की बाँयी तरफ से आरम्भ होकर आज्ञा चक्र होते हुये मूलाधार तक जाती है। पिंगला दाँयी तरफ होती है और इंगला की पूरक मानी जाती है। इंगला और पिंगला के मिलन के मध्य स्थल से सुषुम्ना नाड़ी निकलती है। अपने अंदर के सत्य तक पहुँचने के लिए मैं इन्हीं नाड़ियों को वश में करूँगा । मुझे विश्वास है कि नाड़ियों की इस त्रिवेणी के सहारे शरीर में बहती उर्जा को नियंत्रित कर जो उसमें डुबकी लगा लेगा वो समय और काल के बंधनों से मुक्त हो उस सत्य को पहचान लेगा। एक बार पंच तत्व और जीवन को अनुभव करने वाले पच्चीस तरीके नियंत्रण में आ गए तो उन्हें मैं अपनी अंतरआत्मा से एक ही डोर में जोड़ लूँगा।
शून्य-शिखर पर अनहद बाजे जी 
राग छत्तीस सुनाऊँगा, सुनाऊँगा
निर्भय निर्गुण ....

कहत कबीरा सुनो भई साधो जी 
जीत निशान घुराऊँगा, घुराऊँगा..
निर्भय निर्गुण ....

बस फिर तो वो शिखर आ ही जाएगा जहाँ से बाद में भी कुछ नहीं है और जिसके अंदर भी कुछ नहीं है। ये बिंदु है शून्यता का जहाँ मेरे में कोई "मैं" नहीं है। यहाँ आवाज़ें तो गूँजती है पर अंदर से! इन्हीं ध्वनियोंं से जो छत्तीस राग फूटेंगे उन्हें सुन कर मैं आनंद विभोर हो उठूँगा । ये क्षण स्वयम् पर जीत का होगा। 

तो आइए सुनते हैं इस भजन में कबीर की अध्यात्मिक वाणी कुमार गंधर्व और वसुन्धरा कोमकली के अद्भुत स्वर में..

मुझे यकीन है इसे सुन कर आप इसे बार बार सुनना चाहेंगे तब तक जब तक आपका चित्त भी भजन के सम्मोहन में ना आ जाए !

Reff : https://www.ek-shaam-mere-naam.in/2015/08/nirbhay-nirgun.html


गायकी के साथ बहुत अच्छे प्लम्बर और इलेक्ट्रिशियन भी थे कुमार जी - मधुप मुद्गल

1976-77 का साल रहा होगा. मेरी उम्र इक्‍कीस बरस थी. जून की एक दोपहर एक दुबला-पतला, बेहद शर्मीला-सा नौजवान अपना झोला उठाए मध्‍य प्रदेश के देवास शहर पहुंचा- शास्‍त्रीय संगीत के शिखर पुरुष कुमार गंधर्व से शास्‍त्रीय संगीत की शिक्षा लेने. मैं देवास में उनके आवास भानुकुल गया. कुमार जी अपने साधना कक्ष में थे. मैं चुपचाप सिर झुकाए उनके सामने बैठा था. दिल में धुकधुकी हो रही थी. गुरुजी जाने क्‍या पूछ बैठें. लेकिन मैं भी पूरी तैयारी के साथ गया था. मैं जानता था कि इसके पहले गुरुजी कई लोगों को भगा चुके थे.

अगर संगीत सीखने की इच्‍छा से कोई गुरुजी के पास आता और बड़े-बड़े रागों का नाम लेने लगता तो वे नाराज हो जाते थे. उनका कहना था कि संगीत साधना का काम है, उसके लिए विनम्रता और समर्पण का भाव चाहिए, मुझे बहुत कुछ आता है, वाला अहंकार नहीं.
पहले दिन गुरुजी ने मुझसे रागों के बारे में पूछा. मैंने शुरुआती रागों के बारे में बताया. वे मेरी बातों से संतुष्‍ट हुए और संगीत सिखाने को राजी हो गए.
अगले दिन से तड़के सुबह उठने और रियाज करने का सिलसिला शुरू हो गया. उनकी दिनचर्या सूरज उगने के साथ ही शुरू हो जाती थी. सुबह का उनका समय बगीचे में गुजरता. कभी वे पेड़ों को पानी देते तो कभी रात में गिरे हुए मोगरे के फूल चुनते. सुबह के नाश्‍ते के बाद हम रियाज शुरू करते. गुरुजी संगीत को लेकर बहुत सजग थे, लेकिन अपने शिष्‍यों पर कठोर अनुशासन थोपने वालों में से नहीं थे. कभी मैं 5-6 घंटे लगातार रियाज करता रहूं तो कहते थे, “अब बस कर. मशीन बनना है क्‍या.”

 
गुरुजी कहा करते थे कि ये कोई रटंत ज्ञान नहीं कि जो जितना घंटे रट लेगा, उतना ज्ञानी हो जाएगा. संगीत को अपने भीतर धारण कर लो. फिर चौबीसों घंटे रियाज की जरूरत नहीं होगी. कुछ भी कर रहे हो, संगीत अपनी लय में भीतर चलता रहेगा.
संगीत के अलावा वे पढ़ने पर भी काफी जोर देते थे. उनके पास विश्‍व की सैकड़ों महान पुस्‍तकें थीं. उन्‍होंने सब पढ़ रखी थीं. मैं जो भी किताब लेकर बैठता, वे उसके बारे में बात करते. मुझे, कलापिनी और मुकुल को भी हमेशा 

किताब पढ़ने के लिए कहते.
जीवन की श्रेष्‍ठतम किताबें मैंने उनके यहां पढ़ीं. स्‍टीफन स्‍वाइग के उपन्‍यास पढ़े, विन्‍सेंट वैन गॉग की जीवनी ‘लस्‍ट फॉर लाइफ’ पढ़ी. रवींद्रनाथ टैगोर और राहुल सांकृत्‍यायन का साहित्‍य पढ़ा. गुरुजी हमेशा कहते थे कि सिर्फ संगीत काफी नहीं है. संगीत आत्‍मा को निखारेगा तो साहित्‍य मस्तिष्‍क को. सब इसी देह के हिस्‍से हैं. सबको खुराक चाहिए. सबका संतुलन जरूरी है.

 
कुमार गंधर्व संगीत के जिस शिखर पर थे, लोग जरूर ये सोचते होंगे कि वे चौबीसों घंटा सिर्फ गाते होंगे. लेकिन ऐसा नहीं था. बहुत कम लोग जानते हैं कि वे बहुत अच्‍छे प्‍लंबर और इलेक्ट्रिशियन भी थे. घर में बिजली का कोई सामान खराब हो जाए या प्‍लंबिंग से जुड़ा कोई काम हो तो वे खुद ही औजार लेकर शुरू हो जाते. वे रसोई में कभी-कभी वसुंधरा ताई का हाथ भी बंटाते थे, बरामदे में बैठकर सब्‍जी काटते. कुर्सी की बुनाई का काम भी खुद ही कर लेते थे. उनके जैसी ठंडई कोई नहीं बना सकता. कहीं यात्रा पर जाने से पहले जब वे अपना सामान पैक करते तो उस काम का भी उनका सलीका और लय मुग्‍ध करने वाला था. सूटकेस देखकर ही पता चल जाता कि इसमें कुमार जी का हाथ लगा है. वे बागवानी करते, एक्‍के में बैठकर सैर करने जाते.
देवास में उनके घर परदोस्‍तों और संगीत की लंबी महफिलें जमती थीं. एक बार की बात है. भीमसेन जोशी का देवास में एक कार्यक्रम था. वहां गाकर उनका जी नहीं भरा तो घर लौटने के बाद रात 12 बजे उनकी महफिल फिर से शुरू हुई और भोर तक चलती रही. दोस्‍तों का साथ पाकर उनके चेहरे पर जो खुशी होती, वह अनूठी थी. वैसे उनका सेंस ऑफ ह्यूमर भी कुछ कम नहीं था. धीरे से कुछ ऐसी तीखी, चुटीली बात कर जाते कि सामने वाला सोचता ही रह जाता.
यूं तो गुरुजी से कुछ भी बात की जा सकती थी, फिर भी शिष्‍यों के साथ वे हमेशा एक मर्यादापूर्ण दूरी बनाकर रखते थे. हम सब उस समय युवा ही थे. हमें सुंदर कपड़े पहनने, सजने-संवरने, इत्र लगाने का भी शौक होता था. प्रेम के अंकुर भी हमारे दिल में फूट रहे थे. ऐसे में कभी संगीत से ध्‍यान भी भटकता था. मन विचलित होता तो रियाज पर असर पड़ता. गुरुजी की निगाहें बहुत तेज थीं. वे कहते कुछ नहीं थे, लेकिन सब भांप लेते थे. इन विषयों पर वे सीधे बात नहीं करते, लेकिन प्रकारांतर से समझा देते थे. कभी इसका आनंद भी लेते. मुस्‍कुराकर सबकुछ देखते रहे.
गुरुजी बहुत सादगीपूर्ण ढंग से रहते थे. साफ-सुथरे, शांत रंगों वाले कपड़े पहनते़. बहुत साज-श्रृंगार का उन्‍हें शौक न था. एक बार मैंने उन्‍हें हरमेस का इत्र लाकर दिया. जब तक चला, तब तक लगाया. उसके बाद नहीं.

 
वे अपनी भावनाओं को प्रकट करने में माहिर नहीं थे. लेकिन जो लोग उनके करीब थे, वे उनके स्‍नेह को महसूस करते थे. एक बार मुंबई में एक कार्यक्रम से पहले गुरुजी को उनके 40 वर्ष पुराने सखा वसंत आचरेकर जी के निधन की खबर मिली. वे कुछ देर बिलकुल मौन रहे, लेकिन उन्‍होंने कार्यक्रम स्‍थगित नहीं किया. ऐसा नहीं कि उन्‍हें पीड़ा नहीं थी. लेकिन वे ऐसे ही थे. हर एहसास को अपने भीतर पी जाते. अपनी तकलीफ, अपना दुख, अपने आंसू कभी जाहिर नहीं होने देते. लेकिन उनकी आंखों से उनकी उदासी का पता मिल जाता था.
मैं आज जो भी हूं, उन्‍हीं की बदौलत हूं. मेरे निर्माण में उनकी गहरी भूमिका है. सिर्फ संगीत ही नहीं, एक मनुष्‍य के रूप में समूचा जीवन, विचार सबकुछ गढ़ने में. मैंने उनसे सिर्फ राग ही नहीं, विराग भी सीखा. प्रत्‍यक्ष के पार उसका साक्षात्‍कार, जो निर्गुण और निराकार है, जो शब्‍दों के परे है. ये उनकी ही संगत में मुमकिन था. कई बार गुरुजी के साथ गाते हुए कोई ऐसा क्षण आता कि आंखों में आंसू आ जाते. ऐसा लगता मानो किसी दिव्‍य शक्ति का साक्षात्‍कार हो गया हो.
कुमार गंधर्व का संग-साथ उसी दिव्‍यता के साक्षात्‍कार की तरह था. उनका जो हिस्‍सा हममें छूट गया, वही हमारे जीवन की पूंजी है.

 
(जैसा मधुप मुद्गल ने मनीषा पांडेय को बताया)
(सभी चित्र राजहंस प्रकाशन एवं वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्‍तक 'कालजयी कुमार गंधर्व 'से साभार)
Reff : https://www.facebook.com/notes/pandit-kumar-gandharva-%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%97%E0%A4%82%E0%A4%A7%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5/%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A5-%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%A4-%E0%A4%85%E0%A4%9A%E0%A5%8D%E0%A4%9B%E0%A5%87-%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AC%E0%A4%B0-%E0%A4%94%E0%A4%B0-%E0%A4%87%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%A8-%E0%A4%AD%E0%A5%80-%E0%A4%A5%E0%A5%87-%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%9C%E0%A5%80-%E0%A4%AE%E0%A4%A7%E0%A5%81%E0%A4%AA-%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%97%E0%A4%B2/1531965836822375/


कालजयी कुमार गंधर्व

कुमार गंधर्व अपने जीवनकाल में ही किंवदंतीपुरुष बन गए थे। सभी मानते थे कि हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के समकालीन परिदृश्य में- और, संभवत: समूचे इतिहास में- उन जैसा विवादास्पद और नवाचारी संगीतकार कोई दूसरा नहीं हुआ।

कुमार गंधर्व में नकल के प्रति बेहद चिढ़ थी। और विडंबना यह कि उनका कार्यक्षेत्र यानी शास्त्रीय संगीत ऐसा था, जहां शिष्य अपने जीवन को तभी चरितार्थ समझता था जब वह गुरु की हूबहू नकल कर सके। श्रोता भी उसी की तारीफ करते थे, जो ऐसा कर दिखाए। इसी की प्रतिक्रिया में कुमार गंधर्व घरानों और घरानेदार गायकी के ही खिलाफ हो गए और उन्हें ‘ताश का महल’ बताने लगे।

 

उनकी उपस्थिति हमारे संगीत के जीवंत होने की साक्षी थी, इस बात का प्रमाण थी कि बात-बात पर परंपरा की दुहाई देने वाले शास्त्रीय संगीत में भी बिना शास्त्र की सीमा का उल्लंघन किए साहसिक और अर्थपूर्ण प्रयोग किए जा सकते हैं।

कुमार गंधर्व के सभी प्रयोग सफल हुए हों, ऐसा भी नहीं। महान प्रतिभाएं अपनी सफलता और विफलता, दोनों में ही आने वाले पीढ़ियों के लिए अनेक सबक छोड़ जाती हैं। विज्ञान की जानकारी रखने वाले जानते हैं कि आइन्स्टाइन लगभग तीन दशक तक क्वांटम मेकेनिक्स के खिलाफ विफल संघर्ष करते रहे, क्योंकि उन्हें पक्का यकीन था कि ‘ईश्वर चौपड़ नहीं खेल सकता’।

उनके इस विफल सैद्धांतिक संघर्ष ने वैज्ञानिकों की कई पीढ़ियों की राहें आलोकित की हैं। कुमार गंधर्व के सभी प्रयोग और प्रयास सफल हुए या न हुए हों, लेकिन उन्होंने एक बार फिर इस सत्य का पुनराविष्कार अवश्य किया कि अगर परंपरा का नवीकरण न किया जाए तो वह सड़ने-गलने लगती है।

उन्होंने इस सत्य के एक बार फिर दर्शन कराए कि परंपरा हमारे सिरों पर लदा हुआ अतीत का बोझ नहीं, बल्कि भविष्य की यात्रा तय करने के लिए मिला हुआ पाथेय है। ऊपर से देखने पर लगता है कि कुमार गंधर्व के लिए यह सब करना काफी आसान रहा होगा।

वे बचपन में ही अखिल भारतीय स्तर पर एक विलक्षण बाल-प्रतिभा के रूप में प्रसिद्ध हो गए थे। बिना संगीत सीखे केवल रेकॉर्ड सुन-सुन कर आठ-नौ साल की उम्र से ही वे अब्दुल करीम खां, फ़ैयाज़ खां और रामकृष्णबुआ वझे जैसे दिग्गज गायकों की गायकी को प्रामाणिक ढंग से प्रस्तुत कर सकते थे।

यह नकल होते हुए भी नकल नहीं थी, क्योंकि वे तीन-साढ़े तीन मिनट के 78 आरपीएम वाले रेकॉर्ड सुन कर उसमें गाई गई चीज को दस-बारह मिनट में प्रस्तुत करते थे। यानी वे उस रेकॉर्ड की नहीं, गायकी की नकल पेश किया करते थे। इसीलिए शिवपुत्र कोमकली को दुनिया ने कुमार गंधर्व का नाम देकर सराहा।

मुझे कभी कुमारजी से मिलने का सौभाग्य नहीं मिला। अगर मिलता तो पूछता कि क्या बचपन में यह सब करते हुए उन्हें अच्छा लगता था? या वे उसी तरह मजबूरी में यह सब करते थे जैसे अक्सर बच्चे घर आए मेहमान के सामने माता-पिता के जोर देने पर कविता या कोई गाना सुना कर करते हैं? क्या नकल के प्रति चिढ़ उनमें अपने बचपन के इन्हीं अनुभवों के कारण तो पैदा नहीं हुई?

कारण जो भी हो, परिपक्व कुमार गंधर्व में नकल के प्रति बेहद चिढ़ थी। और विडंबना यह कि उनका कार्यक्षेत्र यानी शास्त्रीय संगीत ऐसा था, जहां शिष्य अपने जीवन को तभी चरितार्थ समझता था जब वह गुरु की हूबहू नकल कर सके। श्रोता भी उसी की तारीफ करते थे, जो ऐसा कर दिखाए। इसी की प्रतिक्रिया में कुमार गंधर्व घरानों और घरानेदार गायकी के ही खिलाफ हो गए और उन्हें ‘ताश का महल’ बताने लगे।

ऐसा नहीं कि इस परंपरा के भीतर नया करने की गुंजाइश नहीं थी। अगर न होती तो एक घराने के सभी गायक एक जैसा ही गाते। लेकिन इसके साथ यह भी सही है कि घरानों में अनुकरण की प्रवृत्ति को एक गुण की तरह माना जाता था और इस कारण अनेक प्रतिभाएं अनुकरण के दुश्चक्र में फंस कर नष्ट हो जाती थीं।

इस संदर्भ में पिछली सदी के एक अन्य शीर्षस्थ गायक मल्लिकार्जुन मंसूर के जीवन की एक घटना याद आती है। वे बंबई (अब मुंबई) के किसी म्यूजिक सर्किल में गा रहे थे कि एक बुजुर्ग उठ खड़े हुए और बोले कि आप जैसे गा रहे हैं, बड़े खां साहब (यानी जयपुर-अतरौली घराने के संस्थापक उस्ताद अल्लादिया खां) तो इस राग को ऐसे नहीं गाते थे। मल्लिकार्जुन मंसूर ने कहा कि आप ठीक कहते हैं। मैं आपको अभी गाकर दिखाता हूं कि बड़े खां साहब इस राग में इस चीज को कैसे गाते थे।

इसके बाद मंसूर ने ठीक उसी तरह गाकर दिखाया जैसे अल्लादिया खां गाया करते थे। और फिर मंसूर ने उन बुजुर्ग की ओर मुखातिब होकर कहा, ‘मैं गवैया हूं, बड़े खां साहब का स्टेनो नहीं।’ घरानों के भीतर से भी जो श्रेष्ठ कलाकार उभरे, वे भी यह दावा नहीं कर सकते थे कि उन्होंने अन्य घरानों से कुछ नहीं लिया। खुद अल्लादिया खां को ही लें।

घराने की श्रेष्ठता के अभिमान के कारण वे बड़े मुहम्मद खां (जिनके बारे में मशहूर है कि इन्हीं की गायकी छुप-छुप कर सुन कर हद्दू खां-हस्सू खां ने अपनी गायकी बनाई थी, जिसे आज हम ग्वालियर घराने की गायकी के रूप में जानते हैं) के पुत्र मुबारक अली खां से बेहद प्रभावित होने के बावजूद कभी शागिर्द बन कर सीख नहीं पाए, हालांकि मुबारक अली खां ने खुद उन्हें अपना शागिर्द बनाने की इच्छा प्रकट की थी। लेकिन जयपुर में रह कर उन्होंने मुबारक अली को सुन-सुन कर ही बहुत कुछ सीखा, खासकर तानों के मामले में।

शायद इसीलिए उन्होंने अपनी गायकी को जयपुर का नाम भी दिया। यहां इस सब का उल्लेख करने का आशय सिर्फ इस तथ्य को रेखांकित करना है कि कुमार गंधर्व ने घरानों की इस जकड़न को महसूस कर लिया था। वे परंपराभंजक नहीं थे। उनका विरोध परंपरा के बहते पानी को बांध कर उसे सड़ांध फैलाने वाले जोहड़ में बदलने से था। उनके सभी शिष्यों ने अलग-अलग समय पर स्पष्ट रूप से यह कहा है कि परंपरागत बंदिशों और रागों को वे परंपरागत ढंग से ही सिखाते थे और राग संगीत की सीमाओं के प्रति सचेत होते हुए भी कभी उन्हें लांघते नहीं थे। एकाध बार अगर भूप में उन्होंने मूड के अनुसार मध्यम लगा भी दिया- और खुद गाना रोक कर बताया भी कि बहुत देर से मध्यम भूप (राजा) के दरबार में आने के लिए खड़ा था, तो मैंने सोचा उसे भी प्रवेश दे दूं- लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वे भूप में मध्यम लगा कर गाते या सिखाते थे।

यों फ़ैयाज़ खां की जयजयवंती पर भी उस समय के गुणीजनों को आपत्ति थी, लेकिन उनके प्रशंसकों के लिए तो ‘मोरे मंदर अब लौं नहीं आए’ ही प्रामाणिक जयजयवंती थी। साहित्य के संदर्भ से देखें तो मुझे कुमार गंधर्व में निराला और धूमिल का अद्भुत मिश्रण नजर आता है। उनकी बनाई बंदिशों में जिस तत्त्व की ओर शायद अधिक ध्यान नहीं दिया गया है, वह है कि शृंगारपरक रचनाओं में भी प्रेम का भवन गार्हस्थ्य की नींव पर बनाया गया है। उनके द्वारा रचित राग मालवती की बंदिश ‘मंगल दिन आज बना घर आयो’ को भला कौन भूल सकता है? एक और रचना मैंने एक बार उन्हें गाते सुना था। शब्द भूल गया, लेकिन स्थिति यह है कि पत्नी अपने पति को याद करके कह रही है कि अब तो आ जाओ, तुम्हें ‘ललन पुकारे’।

आज यह देख कर अचरज होता है कि जिस गायक ने नकल का सदा विरोध किया और अच्छा-बुरा जैसा भी हो, नया रचने के लिए प्रेरित किया, उसकी भी अनुकृतियां पैदा हो गई हैं। आज जरूरत कुमार गंधर्व जैसा गाने की नहीं है, क्योंकि उनका गाना उन्हीं के साथ चला गया है। वैसा न कोई गा सकता है, और न किसी को गाने की कोशिश करनी चाहिए। हां, उन्होंने जिस राह पर चलने का प्रयास किया, उस पर और आगे निकालने की कोशिश जरूर की जानी चाहिए।

कुमारगंधर्व ने भजन को खयाल, टप्पा, तराना आदि की तरह ही शास्त्रीय संगीत की एक स्वतंत्र विधा के रूप में प्रतिष्ठित किया। भजन गायकी को और नए आयाम दिए जाएं, हमारे संगीत के अतीत, वर्तमान और भविष्य पर उन्हीं की तरह बंधनमुक्त होकर विचार किया और नया रचा जाए, यही उन्हें स्मरण करने का सबसे अच्छा ढंग होगा। यों भी कालिदास ने सौंदर्य की यही परिभाषा दी है कि वह क्षण-क्षण नया होता रहता है।

(यह आलेख जनसत्ता से साभार है।)http://www.thepatrika.com/NewsPortal/h?cID=XkkhhE%2BWHA4%3D 

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बाबा प्रेम बहुत करते थे, बस जताना उन्हें नहीं आता था : कलापिनी कोमकली

मैं छोटी थी तो आई-बाबा मुझे अपने नहीं लगते और संगीत दुश्‍मन लगता. आखिर वह संगीत ही तो था, जिसने उन्‍हें मुझसे दूर कर रखा था. मैं चाहती थी कि बाबा न गाएं और मां तो बिलकुल ही न गाएं. एक बार की बात है, देर रात अचानक मेरी आंख खुली तो बाबा के कमरे से मां के गाने की आवाज सुनाई दी. मैं दौड़कर उनके कमरे में गई और मां से लिपटकर रोने लगी, "तुम मत गाओ." वे गाते-गाते रुक गईं. संगीत मुझे इस कदर नापसंद था कि बहुत लंबे समय तक मैं उससे दूर ही रही. बाबा ने भी कभी संगीत सीखने पर बहुत जोर नहीं दिया. वह अपनी कोई बात कभी किसी पर थोपते नहीं थे.

बचपन में हम पर संगीत न थोपने के पीछे मुझे एक और वजह लगती है. वे बाल कलाकार थे. खुद बहुत छुटपन से गा रहे थे. वे घर के बड़े थे और इससे पहले कि उन्हें इस बात का एहसास हो पाता, तमाम जिम्मेदारियां उनके सिर आ पड़ी थीं. गाना हर बार उनके लिए कोई खुशी की बात नहीं होती. उस जमाने में रात-रात भर महफिलें चला करती थीं. कई बार उन्हें नींद से उठाकर गाना गवाया जाता. वे बच्चे ही थे. और बच्चों की तरह उन्हें भी अपनी नींद प्यारी थी. वे रोने लगते, मुझे नहीं गाना. लेकिन बालक कुमार गंधर्व के सामने न गाने और सिर्फ अपनी मर्जी से गाने का विकल्प तो था ही नहीं. ऐसे में कई बार उन्हें डांट पड़ती, मार भी पड़ती. दूसरे बच्चों की तरह खेलना, घूमना, आइसक्रीम, टॉफी खाना, शैतानियां करना उन्हें कभी नसीब न हुआ.

एक उम्र के बाद तो ऐसा हुआ कि वे संगीत के साथ यूं एकाकार हो गए कि मानो वे दो हैं ही नहीं. लेकिन बचपन की ये घटनाएं जरूर कहीं उनके अवचेतन में बैठ गई थीं, इसलिए उन्होंने कभी बचपन में मुझ पर या मुकुल भाई पर संगीत सीखने का कोई दबाव नहीं बनाया. कभी जबर्दस्ती बिठाकर सिखाने की कोशिश नहीं की, कभी नहीं कहा कि ये गाकर सुनाओ, वो गाकर सुनाओ. बाबा डांटते नहीं थे पर बहुत प्रेम भी नहीं दिखाते. आज मैं जानती हूं कि बाबा प्रेम बहुत करते थे, बस जताना उन्‍हें नहीं आता था. हम बाकी बच्चों की तरह खेलते, स्कूल जाते, पढ़ते. संगीत तो देवास के उस घर भानुकुल की रगों में बह रहा था. भागकर जाते भी तो कितनी दूर जा पाते. लौटना तो एक दिन था ही. बाबा किसी भी अर्थ में पारंपरिक लोगों की तरह नहीं थे. न पारंपरिक पिता, न पारंपरिक पति. मेरी मां वसुंधरा कोमकली उनकी शिष्‍या थीं और विवाह के बाद भी वह उस भूमिका से कभी बाहर नहीं आ पाईं. वो कई बार हंसकर कहती भी थीं- मैं कुमार जी की पत्नी नहीं, आज भी उनकी शिष्‍या ही हूं. वे बाबा की हर सुविधा, हर जरूरत का ख्याल रखतीं.
 

बाबा की नींद बहुत कच्ची थी और मां एक पैर पर खड़ी रहतीं कि कहीं बच्चों की आवाज से उनकी नींद में खलल न पड़ जाए. पिता आम पुरुषों की तरह नहीं थे. कह सकते हैं कि बिलकुल रोमांटिक नहीं थे. मजाल है, जो वे कभी मां की साड़ी या गजरे की तारीफ कर दें या कह दें कि तुम बहुत खूबसूरत लग रही हो. हां वो मां को प्रेम बहुत करते थे. प्रेम जताने के उनके तरीके अलग थे. वे शब्दों में नहीं, संगीत में कहते. मां की तबीयत, आराम, सुख-दुख के प्रति संवेदनशील बहुत थे. उनका तरीका अनोखा था. ख्याल रखते पर जताते नहीं. ऐसे छिपाते कि कहीं कोई जान न ले. आई-बाबा को साथ गाते देखना ईश्‍वरीय साक्षात्कार की तरह था. वह संगत, वह संतुलन, वह शिखर, जहां दोनों साथ पहुंचते. बाबा का गाना तो ऐसा था कि अगले क्षण उनके सुर कहां पहुंच जाएंगे, खुद बाबा भी नहीं जानते थे. वे किसी राग में बंधकर नहीं गाते. किसी यायावर की तरह बस अनंत की खोज में निकल पड़ते. मजाल है, जो मां का तानपुरा कभी उनके सुरों की बेचैन भटकन में भटक गया हो. सुर कहीं से कहीं का रुख कर लें, तानपुरा उससे पहले उन सुरों को पकड़ लेता. यह अलौकिक बात थी.
 

कुल मिलाकर बात ये कि कुमार गंधर्व और वसुंधरा कोमकली का दांपत्य पारंपरिक पति-पत्नी की तरह नहीं था, लेकिन दोनों इस कदर एक-दूसरे में एकाकार हो चुके थे कि दो लगते ही नहीं थे. संवाद के लिए उन्हें शब्दों की जरूरत नहीं थी. बिना कहे वे एक-दूसरे की बात समझ जाते. बाबा बच्चों से भी लाड़ जताने, साथ खेलने, स्कूल ले जाने और होमवर्क कराने वाले पिता नहीं थे. लेकिन कभी संगीत, तो कभी किताबों के जरिए जीवन के दार्शनिक सवालों पर बात करते. कभी मुझे कोई किताब पढ़ने के लिए कहते, मैं कोई किताब पढ़ रही होती तो बीच-बीच में पूछते, कहां पहुंची. रवींद्र बाबू का जिक्र आया क्या. मैंने उन्हें पूरी महाभारत पढ़कर सुनाई थी. फिर जब मैंने संगीत सीखना शुरू किया तो वह सानिध्य भी कई बार बहुत अलौकिक होता था. यह अनुभूति तब होती है, जब आपकी आत्मा संगीत के संग रमने लगे.

बाबा कठोर नहीं थे, बलपूर्वक रियाज नहीं करवाते, वे सुरों को, सुरों की आत्मा को समझने की बात करते, उसे देखने की, उसमें रमने की. कहते, "यह कोशिश करने से नहीं होगा, समर्पण से होगा. खुद को सुरों को दे देने से होगा."
 

यह सच है कि मेरा बचपन मेरे स्कूल और आसपास की दूसरी सहेलियों की तरह नहीं था. मैं अपनी दुनिया में बहुत अकेली थी. धीरे-धीरे जब बड़ी हो रही थी, तब भी. जीवन अनेक बदलावों से गुजर रहा था, मन में सौ उलझनें थीं, जिज्ञासाएं थीं, सवाल थे, लेकिन उनका जवाब देने वाला कोई नहीं था. मेरे आई-बाबा तो संगीत को अपना समूचा जीवन समर्पित कर चुके थे. तब मैं उनसे नाराज थी, अकेली थी, तब मैं नहीं जानती थी कि वे साधक हैं. मैं ये भी नहीं जानती थी कि साधना क्या है. उस भावना, उस अवस्था का मुझे कोई एहसास नहीं था.

कई बार वक्त गुजर जाने के बाद जब आप अपनी स्मृतियों में उससे होकर गुजरते हैं तो गुजरा हुआ एक नए रूप, नए अर्थ में खुलता है. अब मैं वो छोटी बच्ची नहीं रही. वक्त के साथ जीवन देखा और जिया है. गाते हुए खुद कई बार मैं आराधक की में अवस्था में पहुंच चुकी हूं. आज मैं जानती हूं कि साधना क्या होती है, साधक किस परम सुख की खातिर अपना सर्वस्व लुटाकर खुद को समर्पित कर देता है.

मेरी स्मृतियों में पिता अब किसी दूर के अजनबी की तरह नहीं आते. वे आते हैं बगीचे में टहलते हुए, मोगरे के फूल चुनते हुए. अपने एकांत में प्रकृति से, पेड़ों से संवाद करते हुए. बड़े मनन से सुबह-सुबह उठकर मोगरे के फूल बीन रहे हैं, उनकी पत्तियां और डंठल काट रहे हैं, उनकी माला गूंथ रहे हैं. और यह सब करते हुए उनके भीतर कोई राग, कोई बंदिश चल रही है. बात करते-करते अचानक कहीं खो जाते हैं, मानों किसी शून्‍य में चले गए हों. अचानक गाने लगते हैं, अचानक मौन हो जाते हैं. कोई पहर, कोई घड़ी ऐसी नहीं, जब उनके भीतर संगीत न बज रहा हो. भानुकुल के उनके साधना कक्ष में मैं आज भी उस संगीत को महसूस करती हूं.

(जैसा कलापिनी कोमकली ने मनीषा पांडेय को बताया)

(सभी चित्र राजहंस प्रकाशन एवं वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्‍तक 'कालजयी कुमार गंधर्व 'से साभार)

source: http://hindi.news18.com/news/nation/memory-of-kumar-gandharva-968047.html

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