गिरिजा देवी

गिरिजा देवी

बनारस की आन बान और शान पद्म विभूषण श्रीमती गिरजा देवी जी की कजरी बरसन लागी जो एक बार सुन ले वह बार-बार सुनने को मजबूर हो जाएगा | गिरजा देवी जी  जैसा ओजस्वी व्यक्तित्व मुश्किल से ही कोई होता है

ठुमरी, टप्पा, भजन और खयाल इत्यादि सब कुछ पर समान अधिकार होने के अलावा उनकी अकृत्रिम सुमधुर आवाज़, भरपूर तैयारी और भक्ति भावना से ओत-प्रोत प्रस्तुतिकरण उन्हें अविस्मरणीय बनाता था. खुद भाव प्रमण होकर शब्दों से खेलना और उसके माध्यम रुलाना हँसाना उन्हें खूब आता था.

वाराणसी के वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ भट्टाचार्य बताते हैं, 'मैंने 1970 से लेकर 2017 तक लगातार, बनारस में हुए उनके हर कार्यक्रम को सुना है और मुझे यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं कि उनकी ख्याल गायकी में चारों वाणी सुनाई देती थी. अतिविलम्बित, दीर्घविलम्बित, मध्यविलम्बित और अंत में तेज़ तान के साथ जाती थी.

बनारस घराने की एक विशेषता है कि यहां ध्रुपद को काटकर खयाल बनाया गया है और खयाल को काटकर ठुमरी के बोल बने हैं. गिरिजा देवी ठुमरी के दो मिजाज़ 'चीख' और "पुकार" में से पुकार को साध्य कर चुकी थी. वो मंदिर में गातीं थी या सामाजिक आयोजनों में लेकिन उनकी पुकार गिरिधर के लिए ही होती थी


गिरिजा देवी (8 मई 1929 - 24 अक्टूबर 2017) सेनिया और बनारस घरानों की एक प्रसिद्ध भारतीय शास्त्रीय गायिका थीं। वे शास्त्रीय और उप-शास्त्रीय संगीत का गायन करतीं थीं। ठुमरी गायन को परिष्कृत करने तथा इसे लोकप्रिय बनाने में इनका बहुत बड़ा योगदान है। गिरिजा देवी को सन २०१६ में पद्म विभूषण एवं १९८९ में भारत सरकार द्वारा कला के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।

प्रारंभिक जीवन
गिरिजा देवी का जन्म, 8 मई 1929 को, वाराणसी  में एक भूमिहार जमींदार रामदेव राय, के घर हुआ था। उनके पिता हारमोनियम बजाया करते थे एवं उन्होंने गिरिजा देवी जी को संगीत सिखाया। कालांतर में इन्होंने, गायक और सारंगी वादक सरजू प्रसाद मिश्रा,पांच साल की उम्र से,ख्याल  और टप्पा गायन की शिक्षा लेना शुरू की। नौ वर्ष की आयु में, फिल्म याद रहे में  ,अभिनय भी किया और अपने गुरु श्री चंद मिश्रा के सानिध्य में संगीत की  विभिन्न शैलियों की पढ़ाई जारी रखी।

88 वर्ष की उम्र में इनका कोलकाता में निधन हो गया।

प्रदर्शन कैरियर
गिरिजा देवी ने गायन की सार्वजनिक शुरुआत,ऑल इंडिया रेडियो इलाहाबाद पर, 1949 से की, 1946 में उनकी शादी हो गयी, लेकिन उन्हें अपनी मां और दादी से विरोध का सामना करना पड़ा क्योंकि यह परंपरागत रूप से माना जाता था कि कोई उच्च वर्ग की महिला को सार्वजनिक रूप से गायन का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए।गिरिजा देवी ने दूसरों के लिए निजी तौर पर प्रदर्शन नहीं करने के लिए सहमती दी थी, लेकिन 1951 में बिहार में उन्होंने अपना पहला सार्वजनिक संगीत कार्यक्रम दिया  वे श्री चंद मिश्रा के साथ,1960 (मृत्यु पूर्व )के पूर्वार्ध तक,अध्ययनरत रही. 1980 के दशक में कोलकाता में आईटीसी संगीत रिसर्च एकेडमी और 1990 के दशक के दौरान बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संगीत संकाय के एक सदस्य के रूप में काम किया, और उन्होंने संगीत विरासत को संरक्षित करने के लिए कई छात्रों को पढ़ाया।

2009 के पूर्व वे अक्सर गायन के प्रदर्शन दौरे किया करती थी और २०१७ में भी उनका प्रदर्शन जारी था। देवी बनारस घराने से गाती है और पूरबी आंग ठुमरी (जिसका दर्जा बढ़ने व तरक्की में मदद की )शैली परंपरा का प्रदर्शन करती है। उनके प्रदर्शनों की सूची अर्द्ध शास्त्रीय शैलियों कजरी, चैती और होली भी शामिल है और वह ख्याल, भारतीय लोक संगीत, और टप्पा भी गाती है।संगीत और संगीतकारों के न्यू ग्रोव शब्दकोश में कहा गया है कि गिरिजा देवी अपने गायन शैली में अर्द्ध शास्त्रीय गायन बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाने के क्षेत्रीय विशेषताओं के साथ उसके शास्त्रीय प्रशिक्षण को जोड़ती है। गिरिजा देवी को ठुमरी की रानी के रूप में माना जाता है। वह 'अलंकार संगीत स्कूल' के संस्थापक,श्रीमती ममता भार्गव, जिनके भारतीय शास्त्रीय संगीत स्कूल ने सैकड़ों मील की दूरी से छात्रों को आकर्षित किया है,की गुरु मानी जाती है।

पुरस्कार
पद्म श्री (1972)
पद्म भूषण (1989)
पद्म विभूषण (2016)
संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (1977)
संगीत नाटक अकादमी फैलोशिप (2010) 
महा संगीत सम्मान पुरस्कार (2012) 
संगीत सम्मान पुरस्कार (डोवर लेन संगीत सम्मेलन)
GIMA पुरस्कार 2012 (लाइफटाइम अचीवमेंट)
Tanariri पुरस्कार
 

मैंने संगीत के जुनून में बहुत बार उँगलियाँ जलाई हैं।

गिरिजा देवी आधुनिक और स्वतंत्रता पूर्व काल की पूरब अंग की बोल-बनाव ठुमरियों की विशेषज्ञ और संवाहिका हैं। आधुनिक उपशास्त्रीय संगीत के भण्डार को उन्होंने समृद्ध किया है। उनकी उप-शास्त्रीय गायकी में परम्परावादी पूरबी अंग की छटा एक अलग ही सम्मोहन पैदा करती है। ख़्याल गायन से कार्यक्रम का आरम्भ करने वाली गिरिजा जी ठुमरी, चैती, कजरी, झूला आदि भी उतनी ही तन्मयता और ख़ूबसूरती से गाती हैं कि श्रोता झूम उठते हैं। उनकी एक कजरी "बरसन लगी" बहुत प्रसिद्ध हुई थी। अपने गायन में दक्ष होने के कारण ही गिरिजा देवी को 'ठुमरी की रानी' भी कहा जाता है। उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था कि- "मैं भोजन बनाते हुए रसोई में अपनी संगीत कि कॉपी साथ रखती थी और तानें याद करती थी। कभी-कभी रोटी सेकते वक़्त मेरा हाथ जल जाता था, क्योंकि तवे पर रोटी होती ही नहीं थी। मैंने संगीत के जुनून में बहुत बार उँगलियाँ जलाई हैं।"

पुरस्कार

पद्म श्री (1972)
पद्म भूषण (1989)
पद्म विभूषण (2016)
संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (1977)
संगीत नाटक अकादमी फैलोशिप (2010) 
महा संगीत सम्मान पुरस्कार (2012) 
संगीत सम्मान पुरस्कार (डोवर लेन संगीत सम्मेलन)
GIMA पुरस्कार 2012 (लाइफटाइम अचीवमेंट)
Tanariri पुरस्कार

गिरिजा देवी जी का जन्म कहां हुआ था

गिरिजा देवी का जन्म, 8 मई 1929 को, वाराणसी  में एक भूमिहार जमींदार रामदेव राय, के घर हुआ था। उनके पिता हारमोनियम बजाया करते थे एवं उन्होंने गिरिजा देवी जी को संगीत सिखाया। कालांतर में इन्होंने, गायक और सारंगी वादक सरजू प्रसाद मिश्रा,पांच साल की उम्र से,ख्याल  और टप्पा गायन की शिक्षा लेना शुरू की। नौ वर्ष की आयु में, फिल्म याद रहे में  ,अभिनय भी किया और अपने गुरु श्री चंद मिश्रा के सानिध्य में संगीत की  विभिन्न शैलियों की पढ़ाई जारी रखी।

गिरिजा देवी जी की गायन शैली

शास्त्रीय और उप-शास्त्रीय संगीत में निष्णात गिरिजा देवी की गायकी में 'सेनिया' और 'बनारस घराने' की अदायगी का विशिष्ट माधुर्य, अपनी पाम्परिक विशेषताओं के साथ विद्यमान है। ध्रुपद, ख़्याल, टप्पा, तराना, सदरा, ठुमरी और पारम्परिक लोक संगीत में होरी, चैती, कजरी, झूला, दादरा और भजन के अनूठे प्रदर्शनों के साथ ही उन्होंने ठुमरी के साहित्य का गहन अध्ययन और अनुसंधान भी किया है। भारतीय शास्त्रीय संगीत के समकालीन परिदृश्य में वे एकमात्र ऐसी वरिष्ठ गायिका हैं, जिन्हें पूरब अंग की गायकी के लिए विश्वव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त है। गिरिजा देवी ने पूरबी अंग की कलात्मक विरासत को अत्यन्त मोहक और सौष्ठवपूर्ण ढंग से उद्घाटित करने का महती काम किया है। संगीत मे उनकी सुदीर्घ साधना हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के मूल सौन्दर्य और सौन्दर्यमूलक ऐश्वर्य की पहचान को अधिक पारदर्शी भी बनाकर प्रकट करती है।[1

गिरिजा देवी जी का प्रथम प्रदर्शन

उनका विवाह 1946 में एक व्यवसायी परिवार में हुआ था। उन दिनों कुलीन विवाहिता स्त्रियों द्वारा मंच प्रदर्शन अच्छा नहीं माना जाता था। 1949 में गिरिजा देवी ने अपना पहला प्रदर्शन इलाहाबाद के आकाशवाणी केन्द्र से किया। यह देश की स्वतंत्रता के तत्काल बाद का उन्मुक्त परिवेश था, जिसमें अनेक रूढ़ियाँ टूटी थीं। संगीत के क्षेत्र में पण्डित विष्णु नारायण भातखंडे और पण्डित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने स्वतंत्रता से पहले ही भारतीय संगीत को जन-जन में प्रतिष्ठित करने का जो आन्दोलन छेड़ रखा था, उसका सार्थक परिणाम देश की आज़ादी के पश्चात् तेजी से दृष्टिगोचर होने लगा था।

सुनिये गिरिजा देवी की आवाज मे यह कजरी Barsan Laagi

काशी छोड़कर क्यों गयीं कोलकाता

इंटरव्यू में अप्पा ने कहा था कि अगर बनारस में ऐसी अकादमी होती तो वह कोलकाता क्यों जाती ? मशहूर शास्त्रीय गायक पंडित छन्नूलाल मिश्रा ने भी कहा कि उनके जीवित रहते उनकी यह इच्छा जरुर पूरी होनी चाहिये थी । उन्होंने कहा , गिरिजा देवी का बनारस से घनिष्ठ नाता था और कोलकाता में रहते हुए भी उनका मन यहीं बसा था।

बनारस को वाकई ऐसी अकादमी की जरुरत है ताकि यहां का संगीत जीवित रहे। छात्र यहां रहकर बनारसी संगीत को समझे और महसूस करें । बनारस हिंदू विश्वविदयालय में शास्त्रीय संगीत की प्रफेसर डॉ. रेवती साकलकर ने कहा कि गिरिजा के बिना काशी सूनी हो गई है। अप्पाजी से ठुमरी, दादरा, कजरी सीखने वाली साकलकर ने कहा, सभी कलाकार ऐसा महसूस कर रहे हैं मानो कोई सुर लगाना चाह रहे हैं और लग ही नहीं रहा। वह बनारस की ही नहीं बल्कि भारत की आन , बान और शान थीं।

बनारस ने संगीत को बिस्मिल्लाह खान, बिरजू महाराज और गिरिजा देवी जैसे अनमोल नगीने दिये हैं। संगीत के इस गढ़ में ऐसी अकादमी होनी चाहिये कि यहां के संगीत की अलग अलग शैलियां पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रहे। वहीं मशहूर शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की दत्तक पुत्री और शास्त्रीय गायिका सोमा घोष ने भी कहा कि अप्पाजी के रहते ऐसी अकादमी बन जानी चाहिये थी।

अगर समय रहते यहां संगीत अकादमी बन गई होती तो वह कोलकाता कभी जाती ही नहीं। घोष ने कहा, बनारस में संगीत के लिये कुछ नहीं बचा। कहां गई गुरु शिष्य परंपरा ? संगीत सीखने के इच्छुक बनारस के बच्चे आज दर दर भटक रहे हैं। बड़े कलाकार असुरक्षा में जी रहे हैं क्योंकि उन्हें कोई भविष्य नहीं दिखता। वाराणसी में संगीत अकादमी और संग्रहालय बनाने की मांग बरसों से की जा रही है । इसके अभाव में ना तो कलाकारों की धरोहरें सुरक्षित हैं और ना ही उनकी विरासत को अगली पीढ़ी के सुपुर्द करने का कोई मंच है । पिछले दिनों बिस्मिल्लाह खान के घर से उनकी अनमोल शहनाइयां चोरी होना इसका जीवंत उदाहरण है।

साल 2016 में गिरिजा देवी जी को पद्म विभूषण सम्मान से सम्मानित किया गया था।

1972 में गिरिजा देवी को पद्म श्री अवॉर्ड से सम्मानित किया गया था। 1989 में उन्हें पद्म भूषण और 2016 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था। इसके अलावा अकादमी फेलोशिप, यश भारती समेत कई पुरस्कारों से उन्हें सम्मानित किया जा चुका था।

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साक्षात्कार: 

तेजस्विनी : ठुमरी की रानी’ गिरिजा देवी

समय के साथ भागता संगीत भले ही ऊंचा और वैविध्यपूर्ण होता जा रहा हो, लेकिन वो उतना ही नकली हो चुका है जितना अब लखनऊ का चिकनकारी वाला कुर्ता. रंग भी है, काम भी है. सजावट भी और वही अर्धपारदर्शी अहसास. लेकिन आत्मा कहीं नहीं है. सब गाने निष्प्राण कंकालों की तरह झूलते नजर आते हैं. जिनपर आप अपने अवसाद और दंभ भुनाने के लिए नाच तो सकते हैं, सुकून नहीं पा सकते.

दिल्ली में हालांकि सुकून के कुछ अवसर आते रहते हैं. एक सबसे अहम अवसर होता था किसी बहाने, किसी आयोजन में गिरिजा देवी का आना और उन्हें गाते हुए सुन पाना. पान दबे गाल से एक खट्टी-मीठी टेर भरी वो आवाज़ जो अब शहरी महिलाओं के कंठ से सुनने को नहीं मिलती. जिसके लिए वापस लौटना ही पड़ता है गंगा की गोद में बसे इलाकों की ओर, गांवों की ओर या गांव को अपने पक्के मकानों में समेटे शहरों की ओर.

परंपराओं की गंध, मिट्टी का स्वाद और मां जैसे अपनत्व वाली ये आवाज़ थी गिरिजा देवी की. उनको गाते सुनता था तो मन करता था जाकर गोद में बैठ जाउं. एक शाम उन्हें सुन लो तो हफ्तों खुमारी छाई रहती थी. फिर कितने ही दिन उनके ऑडियो और यू-ट्यूब लिंक सुनता रहता था. इस शहर में जब-जब निराशा सिर पर नाचने लगती है, भीमसेन जोशी, किशोरी अमोनकर, गिरिजा देवी और कुमार गंधर्व ही ढांढस बंधाते हैं. राशिद ख़ान फिर से नए प्राण भरते हैं.

गिरिजा देवी की आवाज में जो ठहराव था और जो विश्वास, सच्चाई, वो लंबे संघर्षों से अर्जित हुआ था. परिवार, खासकर मां कभी भी इसके पक्ष में नहीं थीं कि वो सार्वजनिक रूप से जाएं और गाएं. वीणा वाली देवी को पूजने वाला यह समाज गाने वाली महिला को बहुत नकारात्मक दृष्टि से देखता है. लेकिन आत्मविश्वास और सच्चाई के जरिए गिरिजा हर प्रतिकूलता से लड़ती हुई गाती रहीं. यही उनकी आवाज की ताकत भी रही.

दरअसल, गिरिजा देवी की आवाज में एक टीस भरी टेर थी. यही टेर मुझे हर बार बिस्मिल्लाह खां की शहनाई में भी सुनाई दी. छन्नूलाल में यह गंवई या देसजपन नहीं है. वो मसान की होली में उड़ते फाग की तरह हैं. शिवमय, गंभीर और मीठे. लेकिन यह जो गले में बसी हुई शहनाई है न, केवल बेगम अख्तर और गिरिजा देवी को ही नसीब थी. अख्तरी बाई तो कब की अलविदा कह गईं, अब गिरिजा भी गवन बाद ससुराल चली गईं.

इस आवाज की ताकत और ठहराव को अब किसी और गले में खोज पाना मुश्किल काम है. बाकी लोग गाते हैं. कुछ उनसे सीखे या उनसे अनुसरण करने वाले भी हैं. लेकिन वो बात दूसरों में नहीं है. बाकी मधुर हैं, विविध हैं, सुगम भी. पर गिरिजा देवी जैसे गहरे, ठंडे, निर्मल और ठहराव कतई नहीं.

गिरिजा देवी का जाना संगीत की एक परंपरा में से हमारे समय की अन्नपूर्णा के चले जाना जैसा है. काशी की कहानी बिना अन्नपूर्णा के पूरी नहीं होती. और अगर अन्नपूर्णा बिना अपनी छाया प्राण प्रतिष्ठित किए चली जाएं तो यह काशी का चला जाना है. सचमुच, संगीत परंपरा का एक काशी आज खो गया, सदा के लिए सो गया.

बनारस के परिचितों, मित्रों और 'कासीवासियों' से मिलते हुए इसपर हर बार चर्चा होती है कि काशी कहां जा रहा है. काशीनाथ सिंह अपने उपन्यास 'काशी का अस्सी' में कहते हैं कि काशी धीरे-धीरे अपनी हंसी, मस्ती खोता जा रहा है. धीरे-धीरे मर रहा है. वो शायद इसीलिए क्योंकि काशी से ठहराव खत्म होता जा रहा है. ठहराव के लिए ममत्व चाहिए और ममत्व के अंतिम प्रतिबिंबों में गिरिजा देवी प्रतिष्ठित नजर आती थीं. वो चली गईं तो काशी से एक आंचल छिन गया. अब ठहराव कहां. और बिना ठहराव के आनंद नहीं आता, न आती है प्रसन्नता. बस नाहक खीस निपोरी जा सकती है.

इसलिए गिरिजा देवी का जाना केवल संगीत की एक परंपरा का अवसान भर नहीं है. गिरिजा के साथ काशी का वो सबकुछ भी खत्म होता दिख रहा है जो हमें समय के चक्रवात में सबसे बेहतर संभाले रख सकता था. चैती, झूला, कजरी, ठुमरी और सोहर गाने वाले कुछ गले आसपास खोजने पर मिल भी जाएं तो गिरिजा वाली बात कहां से मिलेगी.

एक गिरिजा ही तो थीं. अकेले छन्नूलाल अब क्या-क्या संभालेंगे. काशी का अब क्या होगा?

शख्सियत में गिरिजा देवी

गिरिजा देवी पूरी दुनिया में भारतीय संगीत की जाना-माना चेहरा थीं. गिरिजा देवी की स्वर साधना ने बनारस घराने और भारतीय शास्त्रीय गायन को एक नया आयाम दिया. ठुमरी को बनारस से निकालकर दुनिया के बीच लोकप्रिय बनाने का काम गिरिजा देवी ने ही किया. ध्रुपद से नाद ब्रम्ह की आराधना करते हुए सुरों को साधने वाली गिरिजा देवी श्रोताओं को संगीत के ऐसे समंदर में डूबाती थीं कि सुनने वाला स्वंय को भूल जाता था.

बनारस में 8 मई 1929 को जन्मी गिरिजा देवी ने लोक संगीत की विभिन्न शैलियों को नई जिंदगी दी. उनके पिता रामदेव राय एक ज़मींदार थे, जो स्वयं एक संगीत प्रेमी व्यक्ति थे. उन्होंने गिरिजा देवी को पांच वर्ष की आयु में ही संगीत की शिक्षा की व्यवस्था कर दी थी. गिरिजा देवी के सबसे पहले संगीत गुरु पंडित सरयू प्रसाद मिश्र थे. उसके बाद 9 साल की उम्र में पंडित श्रीचन्द्र मिश्र से गिरिजा ने संगीत की विभिन्न विधाओं की शिक्षा ली.

उस समय में बड़े घर की बेटियां गीत-सगीत से दूर रहती थीं, घर में मां और दादी का भारी विरोध था. उसके बावजूद  पिता ने गिरजा को हौसला दिया. गिरिजा गुरुओं की शिक्षा और पिता के समर्थन से गायकी में आगे बढ़ती रहीं. गिरिजा देवी ने एक बार बताया कि 8 साल की उम्र आते-आते वो पूरी तरह से संगीत के लिए समर्पित हो चुकी थीं. उन्होंने न केवल ठुमरी, टप्पा, ख्याल आदि का गायन सीखा बल्कि बनारस के आस-पास के क्षेत्रीय गायन चैती, होरी, बारामासा भी सीखा.

घर-परिवार और समाज के दबाव में पिता ने 15 साल की उम्र में गिरिजा की शादी मधुसुदन जैन से कर दी. मधुसुदन जैन व्यवसायी थी और यह उनकी दूसरी शादी थी. पिता ने गिरिजा के लिए मधुसुदन को इसलिए चुना क्योंकि मधुसुदन कला-प्रेमी थे और उन्होंने गिरिजा के पिता से वादा किया था कि वो गिरिजा को कभी भी गायन से नहीं रोकेंगे.

गिरिजा देवी ने एक इंटरव्यू में अपने पति के बारे में बताया कि उनके पति ने कहा, ‘तुम गाओ, गाने से कोई समस्या नहीं है. लेकिन तुम्हारा गायन किसी निजी महफ़िल के लिए नहीं होना चाहिए. तुम किसी बड़ी कांफ्रेंस, कॉन्सर्ट या फिर रेडियो पर गाना गाओ’. इस बीच गिरिजा देवी के पहले पहले गुरु का देहांत हो गया, उनके पति ने एक दूसरे गुरु श्रीचंद मिश्रा से गायन की शिक्षा दिलवाई.

गिरिजा गायन सीख तो रही थीं, लेकिन उनका सीखना और गाना सिर्फ घर में चल रहा था. शादी के बाद गिरिजा पर पति और बच्चों की ज़िम्मेदारी भी गई. लेकिन गिरिजा देवी ने हार नहीं मानी, पहले पिता और बाद में पति ने गिरिजा का बहुत साथ दिया.

नतीजा यह हुआ कि रेडियो पर उनका गायन साल 1949 में शुरू हो गया, लेकिन पब्लिक में लोगों के सामने उन्होंने कभी भी नहीं गाया. साल 1951 में उन्हें पहली बार स्टेज पर गाने के लिए बिहार के आरा से न्योता मिला. यहां पर गायन के लिए पंडित ओंकारनाथ को बुलाया गया था, लेकिन उनकी गाड़ी खराब हो गयी और वे समय पर नहीं पहुंच पाए. नतीजा हुआ कि आयोजकों ने गिरिजा देवी से विनती की ओंकारनाथ जी की जगह गाने के लिए.

गिरिजा देवी ने उस घटना का संस्मरण सुनाते हुए बताया, ‘हमारा कार्यक्रम दोपहर एक बजे शुरू हुआ और करीब ढाई बजे खत्म. हमने पहले राग देसी गाया और फिर बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए. वह कार्यक्रम एक बड़े पंडाल में हो रहा था. हमने आंखें मूंदी और गाना शुरू कर दिया, इस बात की फिक्र किए बिना कि सामने सौ लोग हैं या फिर हज़ार. बाद में आंखें खोलीं, तो देखा कि पंडाल में करीब दो-ढाई हजार लोग थे.’

बनारस कांफ्रेंस में गायन के दौरान उन्हें रविशंकर, अली अकबर खान, विलायत खान साहब ने सुना. इसके बाद साल 1952 में रविशंकर के कहने पर गिरिजा देवी को गाने के लिए दिल्ली बुलाया गया. दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और बाकी मंत्रियों के लिए एक कार्यक्रम था. वहां गिरिजा देवी काफी देर तक गाती रहीं और सुनने के बाद लोगों ने उन्हें ‘ठुमरी मल्लिका’ कहने लगे.

गिरिजा देवी को लोग प्यार से ‘अप्पा’ बुलाते थे, इसका भी एक मजेदार किस्सा है. दरअसल गिरिजा देवी को अपनी बहन के नवजात बेटे से बहुत लगाव था और जब बहन के उस बेटे ने बोलना शुरू किया तो सबसे पहले उन्हें ‘अप्पा’ कहकर पुकारने लगा. इसके बाद घर-परिवार के सदस्य और गिरिजा देवी के शिष्यों ने उन्हें ‘अप्पा’ कहने लगे.

गिरिजा ने रेडियो के लिए भी बहुत कार्यक्रम किये. जब भी गिरिजा देवी के गायन का प्रसारण होता लोग सुनते तो सुनते ही रह जाते थे. उनके सुर लोगों का मन मोह लेते थे. गिरिजा देवी ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष कोलकाता में संगीत रिसर्च अकादमी में बिताये. उन्हें संगीत में उनके योगदान के लिए बहुत से सम्मान और पुरस्कारों से नवाज़ा गया. उन्हें भारत सरकार ने तीनों विशिष्ट सम्मानों से सम्मानित किया. साल 1972 में पद्मश्री, साल 1989 में पद्मभूषण और साल 2016 में
उन्हें पद्मविभूषण की उपाधि मिली. इसके अलावा उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और महान संगीत सम्मान अवार्ड भी मिला.

24 अक्टूबर, 2017 को कोलकाता में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया. वे स्वयं तो इस दुनिया से चली गयी लेकिन पीछे छोड़ गयी संगीत की अमूल्य विरासत, जो भारत की हर एक पीढ़ी के लिए उनका आशीर्वाद है. गिरिजा देवी के शिष्यों में राजन मिश्र, साजन मिश्र, मालिनी अवस्थी, शुभा मुद्गल, सुनंदा शर्मा जैसे न जाने कितने हैं, जो गिरिजा देवी और बनारस घराने की गायकी की परंपरा को बढ़ा रहे हैं.

 

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