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राग 'भैरव':रूह को जगाता भोर का राग
राग भैरव की उत्पत्ति भैरव थाट से है. इसमें रे और ध कोमल लगते हैं, बाकी स्वर शुद्ध लगते हैं. कोमल रे और ध को आंदोलित किया जाता है.
ये भोर का राग है, सुबह 4 बजे से 7 बजे तक इसे गाया-बजाया जाता है. सुबह का रियाज़ ज़्यादातर संगीतकार भैरव में ही करते हैं. आरोह और अवरोह में सातों स्वर लगते हैं इसलिए इस राग की जाति है संपूर्ण.
आरोह- सा रे ग म प ध नि सां
अवरोह- सां नि ध प म ग रे सा
पकड़- ग म ध s ध s प, ग म रे s रे सा
भैरव में विलंबित ख्याल, द्रुत खयाल, तराना और ध्रुपद गाए जाते हैं, ठुमरी इस राग में नहीं गाई जाती. भैरव बहुत ही प्राचीन राग है. इसके अनेक प्रकार भी हैं- अहीर भैरव, आनंद भैरव, बैरागी भैरव, नट भैरव इत्यादि.
प्रमुख योगदान :
पंडित जसराज,उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली,उस्ताद बिस्मिल्लाह खान,बेगम अख्तर आदि
एक घटना-
राग भैरव की बात चल रही है तो भारत रत्न से सम्मानित शहनाई सम्राट उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की याद आ गई. उस्ताद बिस्मिल्लाह खान कहा करते थे, 'सुर महाराज है’, ख़ुदा भी एक है और सुर भी एक है. सुर किसी की बपौती नहीं, ये कर-तब’ है. यानी करोगे तब मिलेगा. पैसा खर्च करोगे तो खत्म हो जायेगा पर सुर को खर्च करके देखिये महाराज...कभी खत्म नहीं होगा. अमां हम इधर उधर की बात नहीं जानते, बस सुर की बात करते हैं.'
सचमुच, वो सिर्फ सुर की बात करते थे.
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