गवरी नृत्य

गवरी नृत्य सदियों से राजस्थान के अंचलों में किया जाता रहा है। यह भील लोगों द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली एक प्रसिद्ध लोक नृत्य नाटिका है। देवताओं को प्रसन्न करने के लिए गवरी नृत्य एक वृत्त बनाकर और समूह में किया जाता है। इस नृत्य के माध्यम से कथाएँ प्रस्तुत की जाती है। यह नृत्य 'रक्षा बंधन' के बाद से शुरू होता है। प्रतिवर्ष गाँव के लोग गवरी नृत्य का संकल्प करते हैं। अलग-अलग गाँवों में इसका मंचन होता है। नृत्य में महिला कलाकार कोई नहीं होती। महिला का किरदार भी पुरुष उसकी वेशभूषा धारण कर निभाते हैं। नृत्य में डाकू, चोर-पुलिस आदि कई तरह के खेल होते हैं। गवरी नृत्य करने वाले कलाकारों को गाँवों में आमंत्रित भी किया जाता है।

'गवरी नृत्य' में जो गाथाएँ सुनने को मिलती हैं, उनके अनुसार- "देवी गौरजा धरती पर आती हैं और धरती पुत्रों को खुशहाली का आशीर्वाद देकर जाती हैं। गौरजा भीलों की प्रमुख देवी हैं। वे मानते हैं कि यह देवी ही सर्वकल्याण तथा मंगल की प्रदात्री है। यह सभी प्रकार के संकटों से रक्षा करती हैं व विवादों-झगड़ों तथा दु:ख-दर्दों से मुक्ति दिलाती है। इसी देवी की आराधना में भील गवरी अनुष्ठान का संकल्प धारण करते हैं। भील लोग देवी गौरजा के मंदिर में जाकर गवरी लेने की इच्छा व्यक्त करते हैं और पाती माँगते हैं। 'पाती माँगना' एक परम्परा है, जिसमे देवी की मूर्ति के समक्ष एक थाली रखकर विनती की जाती है। यदि मूर्ति से फूल या पत्तियाँ गिर कर थाली में आ जाती हैं तो इसे देवी की आज्ञा माना जाता है। मंदिर में भोपा के शरीर में माता प्रकट होकर भी गवरी की इजाजत देती हैं। तब गाँव के प्रत्येक भील के घर से एक व्यक्ति सवा माह तक पूरे संयम के साथ गवरी नाचने के लिए घर से निकल जाता है। इन कलाकारों को 'खेल्ये' कहा जाता है।

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